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- पांचकल्याणक पूजा. ॥ ४॥ इंद्र अहोनिशि नावन जावत, देख दरश अति हरखाती॥पुन्छ नि प्रमुख वाजिव वजत नित । सुरवधु वनमंगल गाती॥ जि० ॥ ५ ॥ ए पढके प्रनुको पुष्प वासदेप चढावे॥ ॥
॥ ॥ ॥ * ॥ (दूहा) ॥ प्रवरनोग प्रनुपुण्यतें । प्रगटे प्रगट प्रधान ॥ गुण ग्राहक गृह वासमें, दर्शन ज्ञान निधान॥ १॥ * ॥
॥ ॥ राग तुमरी॥ तुम विन दीनानाथ ॥2॥ ॥॥प्रनुविन दीनानाथ दया विन, कोन कहावत कोईरे ॥प्र०॥ गृहवासें शुधसंयमधारी, शुषसुनावे होई रे॥प्र०॥१॥ सम्यग्दर्शनन वनिर्वेदें, स्वतनकी जर खोई रे॥प्रनुता प्रजुकी को कहि वरनें सुर नर नारी मोही रे॥प्र०॥ २॥ शुनलेश्या शुन्नध्यान रमें नित । आतम निरमल धोईरे॥आतमरूप निहारत निजघर । संगसुमति जह जोई रे॥ प्र॥ ॥ ३ ॥ प्रगट प्रकाश आत्म नजियारे । साम कहावत सोई रे ॥ गृहवासे शुभसंयम रागी, लागी लगन सवाई रे॥ प्र० ॥ ४ ॥ निजप्रनुता प्रनु जीनो लीनो, अंतर शविगाई रे॥ विषयवासना गण नई लख । आतम शक्तिशुं गेई रे॥ प्र०॥५॥ ऐसा कही फूल चढावे ॥ॐ॥
॥ ॥ (दूहा)॥ दाता दीन दयाल प्रनु, देत संवत्सरिदान ॥ दूर करे दारिद्र जग, त्रिनुवनमांहि प्रधान ॥१॥॥
॥ ॥ मरुदेवानंदकी, क्या उबि लागत प्यारी ॥१॥ ॥ ॥ जगपति जिनवरकी, क्या नबि मोहनगारी ॥ ज० ॥ मोहत प्रनुके मोहनरूपें, निरख निरख नरनारी ॥क्या० ॥१॥ नोगकर्म अंतराय कर्म कबु, वीण नए निरधारी॥दानसंवत्सर घन जिम बरसत, पृथ्वी प्रमुदि तकारी ॥ क्या ॥२॥ नवलोकांतिक देव सबे मिल, हाजर होय सुचारी ॥ जय जय मंगल शब्द नच्चारत, धर्म गहो सुखकारी॥क्या० ॥ ३ ॥ दान धर्म शिवमारग प्रनुजी, प्रगट कियो हितकारी॥ दाता दीनदयाल जगतमें जिन सम को सुविचारी ॥ क्या०॥४॥इंद्रादिक सुर सुरी नर नारी, दीको त्सव अतिलारी॥गान दान सनमान तान करी, प्रगति सकल सुप्यारी॥ क्या०॥५॥ तजि संसार लियो शुनयोगें, संयम सतरप्रकारी ॥ मनपर्यव