________________
. . पांचकल्याणक पूजा॥ ॥ (दोहा) अनुत्तर धर संयमक्रिया, कटपातीतजिणंद ॥ वीतराग विचरे प्रवर, रत्नत्रय जगचंद ॥१॥ ॥
॥ ॥ कुबजाने जादू मारा ॥ ए देशी॥ॐ॥ *॥ जाके रागद्वेष नया न्यारा रे, सोई श्याम सकल सुखकारा॥ जा० ॥ बासी चंदन सम प्रनु जगमें, अपकारें नपकारा रे, ॥ सो० ॥१॥ कंचन काष्ठ समान हे जाके, सुख पुःख सम उपचारा ॥ कोऊ निंदत कोक पूजत, जिनजी हे अविकारा रे ॥ सो० ॥ जा० ॥२॥ शिवसु ख अरु जवसुख हू न वांजे, वीतराग प्रनु प्यारा ॥ शूरवीर प्रनु पकश्रेणि चढ, मोहनी मल्ल पिगरा रे॥ सो॥ जा० ॥३॥दायिक संयमने शुन्न योगें, अनुत्तर गुण गण धारा॥ पाठक विजय विमल कहे प्रनुके, चरणकम ल बलिहारा रे॥सो० ॥ जा० ॥४॥
॥8॥ (दोहा (घनघाती चन कर्मकों, क्यकर दायिक ज्ञान ॥ दर्शन लोकालोकको । प्रगट प्रकाशी जान ॥१॥॥॥ ॥ ॥
॥ ॥राग ठुमरी ॥ वस मन दत्री कुंमके तोर ॥ ॥ ॥॥पायो प्रनु नवजलनिधिको तीर, अतुलीबल वमवीर ॥ पा०॥ अनुत्तर जाके सुमति गुपति हे, अनुत्तरदमासुधीर ॥ पा० ॥१॥ मार्दवा र्यव अनुत्तर जाके रोक्यो आश्रव नीर ॥ संबरजोग क्रिया नवि विणठी, रही ईर्या सुख सीर ॥ पा० ॥२॥ घनघाती सब शत्रुविनाशी, केवलज्ञान सुधी र॥ पूरन दर्शन प्रगट नयो हे, निज आतम गुणदीर ॥पा०॥३॥प्रा तिहार्य अतिशय जिनसंपद, नयो अनुकूल समीर ॥ दे उपदेश विक प्रति बोधत, वचनातिशय गंभीर ॥पा०॥४॥ लोकालोक प्रकाश परम गुरु, कहि न शके मति सीर ॥ पाठक विजयविमल परमातम, प्रनुता परम सु थीर ॥ पा०॥५॥ जी परमा० अ० ज० श्रीम० केवलज्ञानकल्या णके अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥ इति ॥४॥
॥ ॥ -08 ॥अथ पंचम निर्वाण कल्याणक पूजा॥ॐ॥
॥दोहा॥ इंद्रादिक सुर सब मिली, तीन नुवन शिरदार ॥ सब दरशी सर्वानो, महिमा करे अपार ॥१॥