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जिनहर्षजीकृत २० स्थानक पूजा ६३१ मति पंच त्रिण गुपति धेरैनित । मुरगिरिवरनो धीरज करसीयो ॥ मे०॥ जगतजंतु अघतपति हरणकुं । अनुन्नव अम्रित धार वरसीयो ॥५॥ सुक ल अनिल करमेंधन दाहत । जिणसें परगुण परिणति खिसीयो ॥मे०॥ए मुनि तरणि तेज सम दीपत । अमृत सुखामृत पान तिरसीयो॥६॥ मे०॥ इणपदमें असे मुनिजनके । समरणतें हुय जग अवतसीयो ॥मे०॥ एप दसेवी नृपतिपुरंदर। नये जगपति जिनहरष नवसीयो ॥ ७ ॥(काव्यं) सबिंदिया पार विकार दारी । अकारणा सेस जणोवगारी । महानवातंक ग यापहारी । जयोसदा मुच चरित्त धारी॥८॥नधी श्रीचारित्रधारिभ्योनमः
॥अथ (१८)अपूर्व श्रुतग्रहण पदपूजा लि०॥॥ ॥ * ॥ (दूहा)॥ ॥ श्रुत अपूर्व ग्रहिवो सदा । अष्टादश पदमा हि । इणपद सेवक जनतणा। सहु संकट जय जांहि ॥१॥ जैसी कुमति विशुद्धता। घोर तपैकरि होय । तत् अनंत गुणि शुचता। सुग्यानीकी जोय ॥२॥ * ॥ दिलदार यार गबरू । राखुंरे धुंघटदा पटमें (ए चाल)॥१॥ जिनचंद्र ग्यान तेरा । होजीतेरे विकट जवनटने (आं० )॥ सदपूर्व ग्यान धरणा । वितरै जिनेंद्र चरणा । करि सर्व कर्म हरणा ॥ १॥ जीते। (जि नचंद्र०)। जगमें महोपकारी। जवसिंधु वारितारी । कुमतां धता बिदारी॥२॥ जी० ॥ जि० ॥ सहुनावनो प्रकासी । परमस्वरूप जासी । समकित स अवासी ॥ ३ ॥ जी० ॥ जि० ॥ विणुहेतु विश्वबंधू । गुणरत्न राशिसिंधू । . शमता पीयूष अंधू ॥४॥ जीते०॥ जिन०॥ स्यानाद पनगाजै । नयसप्तसै. विराजै । एकांतपच नाजै ॥५॥जी॥ जि०॥लहि तीर्थ पावतारा। इणसें जिनेंद्रसारा। किया नव्यके नधारा ॥६॥जी॥ जि० ॥ पद सेविए नरिंदा। जये सागरादि चंदा। जिनहर्षके समंदा ॥७॥जी॥ जि० ॥ ( काव्यं ) सुधक्रिया मंगल मंमनस्स । संदेह संदोह विखंमनस्स । मुत्ती नपादान सु कारणस्स । नमो ही नाणस्स जयो धणस्स ॥७॥न झीश्रीज्ञानाय नमः॥१८॥ ॥ इति श्रीअपूर्वश्रुत ग्रहणरूपा ज्ञानपूजा ॥१८॥ * ॥
॥ * ॥अथ (१९) श्रुतपद पूजा लि०॥॥ ॥ * ॥ (दूहा)॥ * ॥ पाप ताप संहरण हरि। चंदन सम श्रुतसार ।