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रत्नसागर, श्रीजिन पूजा संग्रह.
र्वी उतकृष्ट चरणधर । लब्धिवंत अणगारी । एजिन कहीये इनवंदनते । विहुवै जिनवतारी ॥ ३ ॥ से०॥ जिनमंदिर बिंब करण जरावै। पूजकरै म नुहारी । बेयावच्चकही ए जिनकी । करीये जवजल तारी ॥ ४ ॥ से० ॥ आचारज परमुख नवपदको । बेयावच्च विजितारी । जगतिपूर्व वस्त्रौषध अन्नजल | देवै गुण विस्तारी ॥ ५ ॥ से० ॥ पंचसय मुनिनी करीय बेयावच्च पूरबनव व्रतचारी । जरत बाहुबल चक्रीपदनुज । बललह्यो वरी शिवना री ॥ ६ ॥ से० ॥ नंदिषेण सुलसा मुनिजनकी । करीय बेयावच्च सारी । तिणसें सरगलोकमें यकी । नई प्रसंसानारी ॥ ७ ॥ से० ॥ इत्यादिक सो लमपद नधरै । बहुलव्य क्रमजारी । तिणसें इणबेयावच्च पदकी । वारी जानं वारहजारी ॥ ८ ॥ से० ॥ नृपजीमूत केतु सोलमपद । सेवीजयेदुख वारी । श्रीजिनहरष धरी हरिवंदत । शरणागत निसतारी ॥ ९ ॥ ( काव्यं ) मणुसवा तिसयासयाणं । सुरासुराधीशर वंदियाणं । खींडुबिंबा मल सग्गु गाणं । दयाधणाणं हि नमोजिणाणं ॥ १० ॥ ( ती श्रीजिनेभ्यो नमः ॥ ॥ १६ ॥ ॥ इति षोमशपदे श्रीवैयावृत्य पूजा ॥ १६ ॥
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॥ * ॥ अथ ( १७ ) समाधिपूजा लि० ॥ * ॥
॥ * ॥ (दूहा ) ॥ * ॥ सतरमपदमें सेवीयै । सहु सुखकरण समाधि । जिए सेवनतें जविकनो । गमें व्याधि अरुमाधि ॥ १ ॥ ब्रह्मनगर पथि विचरतां । वर पाथेय समान । ए समाधिपद जानीयै । सुरमणि किया हैरान ॥ २ ॥ वाजै तेरावा (इस कैवारी चाल में ) ॥ * ॥ मेरोरे समाधि चरण चित वसीयो ॥ चर० ॥ तमुगुण समरणि कियो मनुवसीयो ॥ मे० ॥ सकल जगत जन जिनकुं स्तवतु है | अनुभव रंगे प्रतिह विकसीयो ॥ १ ॥ मे० ॥ द्रव्यत जावत दुविध समाधि । सुरतरु मांनुं नित जुवन विलसीयो । मे० ॥ प्रशन वसन सलिलादिक नक्ती । करय संघनी करुणा रसीयो ॥ मे० ॥ २ ॥ द्रव्यसमाधि प्रथम एसुनियै । कह्यो जिन लोकालोक दरसीयो ॥ मे० ॥ सारण वारण चोयण प्रमुखै । पतित सुथिरकरे भ्रममें हरसीयो ॥ मे० ॥ ३ ॥ जावसमाधि प्रतीयए कहीयै। जोकरे सो जिनचरण फरसीयो ॥ मे० ॥ सकल संघक जो नपजावत। दुविध समाधि पुरित तसु नसीयो ॥ ४ ॥ मे० ॥ सु