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रत्नसागर, श्रीजिनपूजा संग्रह साधु सूधा ते आतमा । स्युं मुंमै स्युं लोचैरे॥ (बी० )॥४९॥ * झी। इति पांचमे पदै श्रीसाधुजीकी कलश पूजा ॥४०॥ ॥ ॥
॥ ॥ अथ नही दर्शन पद पूजा लि०॥॥ ___॥ ॥ (दूहा ) जिनवर नाषित सुघनय । तत्वतणी पर तीत । ते सम्यग् दरसन सदा । आदरियै सुन्न रीत ॥१॥ ॥ (काव्य) जिणुत्त तत्ते रुइ लक्खणस्स । नमो २ निम्मल देसणस्स । मित्त नासाइ समुग्गमस्स । मूलस्स सधम्म महा उमस्स ॥ विपर्या सहो वासना रूप मिथ्या । टलै जे अनादी अ जे कुपथ्या । जिनोक्तै हुई सहज थी शु घध्यानं । कहीइं दर्शनं तेह परमं निधानं ॥५०॥ विना जेहथी ज्ञान मझा न रूपं । चरित्रं विचित्रं जवारण्य कूपं । प्रकृति सातने नपसमा लय तेह होवै । तिहां आप रूपें सदा आप जोवै ॥५१॥ॐ॥ (ढाल) #॥स म्यग् दरसन गुण नमो । तत्त्व प्रतीत सरूपी जी। जसु निरधार स्वन्नाव । चेतन गुण जे अरूपी जी (चाल) जे अनूप श्रघा धरम प्रगटै सयल पर ईहा टलै । निज शुध सत्ता नाव प्रगटै अनुन्नव करुणा उनले । बहुमान परणिति वस्तुतत्वें अहव सुरकारण पणें । निज साध्यदृष्टै सरब करणी तत्वता संपति गिणे ॥५२॥ ॥ (ढाल ) ॥ ॥ शुध देव गुरु धर्म परिदा । सदहणा परिणाम । जेह पामी जै तेह नमी जै । सम्यग् दर्शन नामरे (न० सि०) ५३ ॥ मन नपशम क्य उपशम जेह थी। जे हो इत्रिविध अन्नंग । सम्यग्दर्शन तेह नमीजै । जिन धरमें दृढ रंग रे॥ (न सि०)५४॥ पांचवार नुपशम लही जै । दय नपशमीय असंख । एकवार वायक ते सम्यक् । दर्शन नमीइं असंख रे (न सि०) ५५॥ जेविण नाण प्रमाण न होवे । चारित्रतरु नवि फलिन । मुख निरबाण न जे विण लहिई । समकित दर्शन बली नरे॥ (न सि०)॥५६॥ सम सह बोलै जै अलंकरिन । ज्ञान चारित्रनुं मूल । समकित दर्शन ते नितम णमुं। सिवपंथनुं अनुकूलरे॥ (न. सि० )॥५॥१॥ सम संवेगादिक गुणा खय नपशम जे आवैरे । दर्शन तेहिज आतमा । स्युं होय नाम धरावैरे॥ (बीतुमे० )॥५०॥ (शी)॥ ॥ इति दर्शनपद कलश पूजा॥६॥