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रत्नसागर.
सर्व स्त्रात्रिया जनका कलश हाथमें लेकै खडा रहै । मुखसें पढै (ढाल ) शांतिनें कारण इंद्र कलशा नरे । ए चाल ॥ * ॥ श्रात्म साधन रसी देव को हसी । नवसीनें धसी खीरसागर दिसी ॥ पौदह आदि दह गंग पमुहानई । तीर्थजल अमल लेवा नणी ते गई ॥ १ ॥ जाति क श करि सहस प्रोत्तरा । बत्र चामर सिंहासों सुनतरा । उपगरण पु फचंगेरि पमुहासवे । आगमें नासिया तेम आणीठवे ॥ २ ॥ तीर्थ जल रिय करकलश करि देवता । गावता भावता धर्म्म नन्नतिरता । तिरिय नर मरने हर्ख उपजावता । धन्य ह्म सगति सुचि जगति इम जावता ॥ ३ ॥ समकित बीज निज आत्म आरोपिता । कलश पाणीमिसें भक्तिजल सीं चता । मेरु सिहरो वरै सर्व श्राव्या वही । शकढंग जिन देषि मन गह गही ॥ ४ ॥ ॥ (गाथा ) ॥ * ॥ हो देवा णाई । कालो दि yat | तिलोय तारणो । तिलोय बंधु । मित्तमोह विदंसणो । प्राणाइति ना विणासणो । देवाहि देवो दिवो प्रिय कामहिं ॥ १ ॥ * ॥ ( ढाल तेह (ज) ॥ ॥ एम पति वा जुवा जोईसरा । देव वैमाणिया जत्ति धम्मायरा । केवि पहिया के वि मित्ताणुगा केई बररमण बयण अन्गा ॥ ५ ॥ ( व स्तु ) तत्थु अच्चुय २ इंद्र प्रदेश । करजोकि सर्ब देवगण । लेयकलश प्रदेस पामीय | प्रदद्भुत रूप सरूपजुय । कवण एह पुचंत सामीय ॥ इंद्र कह जगतारणों । पारग परमेस । नायक दायक धम्मनिहि । करीयै तसु निषे ॥ १ ॥ (ढाल ९ मी ) तीर्थ कमल वर नदक नरीनें । पुषकर सा गर वे ( चाल ) | पूर्ण कलश सुचि नदकनी धारा । जिनवर गै न्हा । तम निरमल नाव करता वधतें शुभ परिणामें । अच्युता दिक सुरपति मऊन लोकपाल लोकांत । सामानिक इंद्राणी पमुहा इम अभिषे क करत ॥ १ ॥ पू० ( गाहा ) || तब ईशान सुरिंदो । सकं पनणेइ करि हु पसावो । तुझ के मह नाहो । खिणमित्तं ब्रह्म पेह ॥ १ ॥ ता सक्किंदो पाई । साहमीय व लंमि वहुलाहो । प्राणावते गिरहह होन कयत्थान ॥ २ ॥ ॐ ॥ इतना कहके । सबै स्नात्रिया, जगवान ऊपर कलश ढाले । मुखैपढै ॥ * ॥ (ढाल ) ॥ सोहम सुरपति वृषण रूप करि ।