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देवचर्द्रजीकृत स्नात्रपूजा.
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धरै ॥ सुलगनेंजी ज्योतिस चक्रते संचरै । जिन जनम्याजी जि प्रव सर माता घरे ॥ ति अवसरजी इंद्रासण पण थर हरे || ( त्रुटक) थरहरै आसन इंद्रचितै कौन अवसर एबन्यो । जिन जन्म नव काल जाणी प्रतिहिणंद ऊपनो ॥ निजसिध संपति हेतु जिनवर जाणि जगते मह्यो । विकसंत वदन प्रमोद वधते देवनायक गहगह्यो ॥ १ ॥ (ढाल ) तब सुरपति जी घंटानाद करावए ॥ सुरलोके जी घोषणा एहदि रावए । नर जी जिन वर जनम हुवो है । तसुभगर्ते जी सुरपति मंदि र गिर गबै ॥ (टक) गर्ने मंदिर शिखर ऊपर जुवन जीवन जिनत गो। जिन जन्म व करण कारण प्रावज्यो सविसुर घणो । तुम समकित थास्यै निरमल देव देवी निहालतां । आपणा पातिक सर्व जास्यै नाथ चरणपखालतां ॥ ३ ॥ ( ढाल ) इम सांननजी सुरवर कोकि बहू मिली। जिन वंद जी मंदर गिरि साहमी चली । सोहम पतिजी जिन जननी घराविया । जिन माताजी वांदी स्वामि बधा विया । (त्रू टक) बधाविया जिनवर हर्ख बहुलै धन्यहुं कृतपुन्य ए । त्रैलोक्य नाय क देवदीठो मुऊ समो कुण अन्यए । हे जगत जननी पुत्र तुझचो मेरु म ऊन वरकरी । नहंग तुझचै बलिय थापिस आतमा पुन्यें नरी ॥ ४ ॥ (ढाल ) सुरनायकजी जिन निज कर कमलें ठव्या ॥ पांच रूपें जी अति सय महिमायें स्तव्या । नाटक विधिजी तब बत्तीस आगल बहै । सुर कोमी जी जिन दरसनें कमहै ( टक) सुर कोमि कोमी नाचती बलि नाथ शचि गुण गावती । अपरा कोमी हाथ जोमी हाव भाव दिखावती जय जय तूं जिन राज जग गुरु एमदै प्रासी सए । प्रत्राण शरण आ धार जीवन एक तूं जगदीश ए ॥ ४ ॥ ( ढाल ) सुरगिरवर जी पांडुक व नमें चिह्नं दिसे । गिरसिल परजी सिंहासण सासय वसै । तिहां प्राणीजी शत्रें जिन खोले ग्रह्या । चौसठे जी तिहां सुरपति प्रावी रह्या (टक) आविया सुरपति सर्व जगतै कलश श्रेणि वणाव ए । सिद्धार्थ पमुहाती र्थनषधि सर्व वस्तु णावए । प्रच्चुय पति तिहां हुकमकीनो देव कोमा कोमिनें । जिन मऊनारथ नीर ल्यावो सबे सुर कर जोडिनें ॥ ५ ॥ ॥
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