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रत्नसागर.
रण प्रगटयो जिहाज ॥१॥ अव अमवी पारग सस्थवाह । केवलनाणा ईश्र गुण अगाह ॥ शिव साधन गुण अंकूर जेह । कारण उलट्यो आसाढि मेह ॥२॥ हरखे विकसे तब रोमराय । वलयादिकमां निज तनुं नमाय ॥ सिंहासणथी ऊठ्यो सुरिंद । प्रणमंतो जिन आनन्द कन्द ॥ ३॥ सगअम पय समुहा आवितत्थ । करी अंजली प्रणमित्र मत्थ सत्थ ॥ मुख नाषे एवण आजसार । तियलोय पहू दीछो नदार ॥ ४ ॥रेरे निसुणो सुरलोय देव । विषयानल तापित तनु समेव ॥ तसु शान्तिकरण जलधर समान । मि थ्याविष चूरण गरुडवान ॥५॥ ते देव जगत्तारण समत्थ । प्रगट्यो तसु प्रणमी हुवो सनत्थ ॥इम जंपी सकस्तव करेवि । तव देव देवी हरखे सुणे वि॥६॥गावै तब रंना गीतगान । सुरलोक हुवो मंगल निधान । नर खेत्रे आरज वंसगम । जिनराज बधे सुर हर्ख धाम ॥७॥ पिता माता घरे नव अलेष । जिन शासन मंगल अति विशेष ॥ सुरपति देवादिक हर खसंग । संयम अरथी जननें नमंग ॥ ८॥सुनवेला लगनें तीर्थनाथ । जनम्या इंद्रादिक हर्ख साथ ॥ सुखपाम्यां त्रिनुवन सर्वजीव ॥ बधाई ब धाइ थई अतीव ॥९॥8॥ फूल अक्तसें वधावै । ३ प्रदक्षिणा देवै । (पीजे) शकस्तव, ठगणं संपावियुकामस्स । तक कहै । पीछे । रोली (तथा ) केसरका हाथमें साथिया करै । धूपखेवै ॥ (ढाल ) श्री शांति जिननो कलश कहि सुं० ॥ ए चाल ॥ ॥श्री तीर्थपतिनो कलस मऊन गाइये सुखकार । नर खेत्र ममण मुह विहंमण । नविक मन आधार ॥ तिहां रावराणा. हरख नबव । थयो जग जयकार ॥ दिशि कुमरी अवधि विशेष जाणी । लह्यो हरख अपार ॥ १॥ नित्र अमर अमरी संग कुमरी । गावती गुणबंद ॥ जिन जननी पासे आय पहुती । गहकती आणंद ॥ हेमायतें जिनराज जायो । शचि वधायो रम्म । अमजम्म निम्मल करण कारण । करिस सूई अकम्म ॥२॥ तिहां नूमि सोधन दीप दरपण बायवींऊणधार ॥ ति हां करिय कदली गेह जिनवर । जननी मऊनकार ॥ वर राखमी जिनपा णि वांधी । दीयै इम आसीस ॥ युगकोम कोमी चिरंजीवो । धर्मदायक ईस ॥३॥ (ढाल ) नबालानी ॥ ॥ जिनरयणीजी दश दिश नजानता