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. रत्नसागर. देव गुरु धर्म तीनुं जला (च०)। पाशा एही जाणरे । अवशर कर हा थे लीया (च० ) नऊल लेश्या आणरे ॥ ३ ॥ दरशण ग्यांन चारित्र जला (च० )तीनुंई गुपती विचाररे । नव तत्व सात हिरदे धरो (च०)। एसब शोला साररे॥४॥ (अ०) पड्या अठा रै रहणदे (च० ) पोबा रा ब्रत धाररे। दस लवण दस धरमहै ( च० )। हितकर हीयै विचाररे ॥५॥ (अ० ) षट्काया कमीपमी (च०) हिरदै दया विचाररे । पु न्य उदै पंजमी पमी (च०) पंच महा ब्रत धाररे॥६॥ ( अ ) च्यार तीन काणा पड्या (च०)। सातुंई विसन निवाररे । जे पुरगति दायक सही (च०)। वाधै अनंत संसाररे ॥ ७॥ (अ० ) चिहुं गति वाजी लग रही (च०) मुक्ख सह्या नरपूररे । करमकटै सुख ऊपजै (च०) रतनसागर कहै सररे॥८॥(अ०)॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ इति श्रीचौपम खेलन हित नपदेश सिशाय संपूर्णम् ॥ * ॥
॥ ॥ सेठेज खेलन विचार स्तवन लि० ॥ ॥ ॥ ॥ सेज खेल खिलारी । सब समझ देख सेठेजकी पात । ल ख दोलं दल अपनें परायें की जात । काऊ बिध कर मोह बादस्थाहकों मात । जब जाएं तोय चतुर खेलन खिलार (हे से० )॥१॥ प्राकुं कर्म पिया दे आगै फूकतेही आवै । काम क्रोध गज चलत थंनत नहीं थनै । लोन ऊंठ चारं खूटकी मरोड चल ध्यावै । मान मायाके तुरंग चालचपल देखावे। मिथ्या मत सो वजीर वीरवाकै ढंग गमो । वाकै मारवैकों दल अपनो संचार (हेसे०)॥२॥ तेरो ग्यान सो वजीर वीर तेरे ढंग ठामो । आठों अंग समकि तके पियादे हलकारो । त्याग सांढिया सवार पर सांढियां को मारो । सत्य व चन तुरंगसुं तुरंग निवारो। आमा शील दोय फील राखो दलकैअगामी । परद ल कर मारो दिन में संहार (हे से०)। जप तप सत व्रत याकै धेरै चिहुं नर जब वाकै चलने की काइ रहै नई गोर। जब तेरी होगी जीत दूजो हा रेगौ खेलारी । जब सुजश को तेरै शिर वधैगो मोड । गमे इंद्र धरणिंद्र तोरे ढोलेंगे चवर । तेरो जजन नजैगौ गुण अगाह (हे से) ॥३॥ इति सजनपुरूषोंके सेज खेलन विचार संपूर्णम् ॥ ॥ * ॥ ॥8