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रत्नसागर. क्युं तूटे । मेरे नेम विना नहिं ओर । जगतमें वररे ॥ जग०॥ में ॥३॥ तुम तारी राजुल नार । मुगतिमें मेली ॥ मुग०॥ पीछे नेम गये निरवाण करम सब ओली । मे नित कगे परजात । नमुं पद पहली ॥ न०॥ मेरे नेम विना नहि और । जगतमें बेली । युं अरज करे जिनदाश । सु णो जिनवररे॥ सुणो० ॥ में ॥४॥२१॥
॥ पुनः॥ ॥ ॥ ॥ आप समझका घर नहीं पाया । दूजैकुं क्या समझावे ।। बंका फिरे जिनदाश जगतमें । हीयो हाथमें नहीं आवे (ए आंकणी ) दरस सवाद चाहनकी चित्तमें । चानक अधिकी आय लगे । इंद्रीका पर वसमे पडियो । ग्यानकला कहो कैसें जगे । तृष्णाने जग लूंट लीयो हे। कपट करी परधनकुंठगे । खाय खाय लोही मांस वधारयो । प्राणी किस विध चले पगे। विषय विपतकी करे चूंथणी । चरचासुं चित्त नहीं लावे ॥बं०
आ॥१॥अपने अवगुनकुं नहीं देखे । दूजाका अवगुण नाखे । हिंसाही में हूओ हजूरी । दया दूर दिलसें नाखे ॥ गुणवंतका गुण लोप मेरो मन । अवगुणके रसकुं चाखे ॥ तिनुही प्रणमे रागधरा में । सरणे जिनवर किम राखे ॥ ठग फांसीगर चोर अन्याई। धन मीसें इनकुं ध्यावे॥० प्रा० ॥२॥ अवगुणकी मेरी खान आतमा । अजान होयसो मोहेपूजे । नहीं गाममें रुख अंबको । एरंग अंब सरिखो सूजे । पारख नहीं हे हीये ग्यानकी । गुण अवगुनकुं कुण बूझै । गामर देख कहे मुज घरमें । कामधेनु इतनी दूजे ॥ ऐसी मेरी अविनीत आतमा। अवगुन किम गाया जावै ॥ब आ० ॥३॥ौध मान मायामें मातो । लोन मांहें लपट्यो रहतो । गरथ गु मानी गमको गरजी । पीम पारकी नहीं सैतो । जगति नहीं गुरु देव धर मकी । कठण वचन सुखसें केतो । अंतर आंख न खुले हीयाकी । पूठ परम पदकुं देतो ॥ स्वांग सजी जिनदाश जैनको । माल मुलकको ठग खावे ॥ वंको० ॥ आप०॥४॥२९॥ इति ॥ ॥ ॥ॐ॥
॥॥सुगुरूकी लावणी॥॥ ॥ ॥ नमुं नमुं में गुरु निग्रंथकुं । वेजिन मुद्राधारी हे । पुजल