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जिनदासकृत लावण्यां संग्रह.
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मोती ॥ जरया० ॥ शत्रु सन सब बने । जगत होय गोती । कोई म सले तेल फुलेल । धोवे कोइ धोती ॥ धोवे० ॥ सन्मुख उठ आवे अब खा । तेरो मुख जोती । ऐसी संपत एक बिनमांहे । सरब कय नईरे ॥ सरव० ॥ पुदगल ० ॥ २ ॥ तें खटरस खाया खूब खजाना खोया ॥ ख ० ॥ निशिदिन सुखनर सुंदरिकी । सेजमें सोया । सजिया सोल सणगार । नारि सें मोद्या ॥ नार० ॥ तें अंतर घटका मेल । रती नहीं धोया । या नरक निगोदकी वाट । पकम कर लही रे || पकरु० ॥ पुदग० ॥ ३ ॥ मन मा तो आठ मदमांहे । गरवसें बोले ॥ गर० ॥ मैं सुख संपतको नाथ । मेरी कुण तोले । दुर्बल करता पोकार । पलक नहीं खोले ॥ प• ॥ आकर होय रह्या हजूर । चमर शिर ढोलै । अब अवसर आयो हाथ । चेत तु सहीरे ॥ चेत० ॥ पुदगल ० ॥ ४ ॥ कायासें कीयो लाम । बनाई चंगी ॥ बना० ॥ पल भर पर वारयो पुन्य तणो तिहां जंगी । पककी पर जव की वाट होय कुण संगी || होय ० पकी नंगी । जिनदास कहे करमोसुं गल में मान्यो० ॥ ५ ॥ ॥ १० ॥
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तेरो हंस गयो आकाश | काया
नहीं रे || जोर० ॥ पुद
जोर तेरो 11
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॥ ॐ ॥
॥ ॐ ॥ पुनः ॥ * ॥
॥ * ॥ तुम तजकर राजुलनार तज्या सब वररे ॥ तज्या० ॥ में नर्मु नेमके पाय । गया गिरिवररे । में प्रीत पीयाकी कर कर पले लागी ॥ पल्ले० ॥ तुम त्याग चले बन खँ । हुवे वैरागी । अब राजुल सरखी सती । जावसें त्यागी ॥ जाव० ॥ थारे अंतर घटमें ज्योत । ग्यानकी जागी । युं रोती राजुल नार नयण नर नररे ॥ नय० ॥ में नमुं ॥ १ ॥ में अरज करूं कर जोन । करो मन परसन ॥ करो || मेरे शिरपर तुम शिरदार । देजो मोहे दरश न । अब सुख सखीयनका देख लग्यो मन तरसन || लग्यो || मेरे | आयो arun नीर | लग्यो नित्य बरसन । मेरे नेम मिलनकी प्राश । मिलूँ किम कररे ॥ मि• ॥ में० ॥ २ ॥ में नहिं कीनी तकसीर । चले क्युं रूठे ॥ चले० ॥ मेरे घरमे कुटुंब परिवार । चार दिश चूंटे में जो रहुँ घरके मांहे । जोबन सब लूँटे ॥ जो० ॥ में चलूँ पियाके साथ । प्रीत