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जिनदासकृत लावणी संग्रह -
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नकी सुमतिसें घर रेनां नाई । रीतसें बोलो। मेरी जान। रीत० । प्रतम स मतामें तोलो । मत नरम पारका खोलो। मौन कर तन मनसे रहियें रे ॥ मौन | चल० ॥ २ ॥ जोबन दिन चार तणो संगी रे || जोबन० ॥ श्रं त समय चेतन ना चाले । काया पकी नंगी । प्रीत सब तूटी। मेरी जा न ॥ प्रीत० ॥ खाकी खरची खूटी । चेतनसें काया रूढी । सुख दुःख आप किया सहियें रे । सुख० ॥ चल० || ३ || जगतसें रहता कदा सी रे । जग । परख्या में जिनराज हरो । मेरी दुरगतकी फासी । तजो सब धंदा | मेरी जान । तजो० । जिनवर मुख पूनम चंदा । जिनदास तुमा रा बंदा । मेरे एक जिन दर्शन चहियें रे ॥ मेरे ० ॥ चल० ॥ ४ ॥ १ ॥ * ॥ पुनः ॥ * ॥
॥ ॐ ॥ तुम जो जिनेशर देव । मुगति पढ़ पाईरे ॥ सुगति० ॥ ब अचल खंमित ज्योत । सदा सुखदाई रे ( ए ग्रांकणी ) में रुल्यो चोराशी मांहे मूल्य में नरम | मूल्यो ० ॥ महारे नदय अनंता दुःख | बांध्यां जब कर्म ॥ में कदियक हुन रंक । फिरयो तजि शरम | फिरयो० ॥ श्ररु कदियक राजा नयो । रथको गरम । जब गरब प्राण कर बोल्यो । पारका मर्म । पार० । पण निर्मल जुगमें जैन । कीयो नहीं धर्म । अब मनख जनममें चेत, घमी सुन आईरे । घमी० ॥ ० ॥ १ ॥ में सुर नरका सुख वार | अनंती पाया ॥ अनं० ॥ महारे शिव समताका सुःख । हाथ नहिं प्राया में कुगुरु ने कुदेव । जला कर ध्याया ॥ जला० ॥ में नलको अनादि अग्यान । विषयभोग जाया । में पंड्यो लोनके फंद | जोमतो माया ॥ जोन० ॥ पण लग्यो अंत जब प्राय । कालने खाया । अब परहर सब परमाद | धर्म कर जाईरे ॥ धर्म० अ० ॥ २ ॥ अब दुर्लन अवसर ल ही । तुं सुकृत कररे । तुं सुकृ० ॥ अव दान शीयल तप जाव। हीयामें धररे । तुं करमकी माला काट । पाप परिहररे ॥ पाप अब वार वार क हुं तोहे । जगतसें तररे । तुं निर्मल नयणें देख। नरकसुं कररे ॥ नर० ॥ तुं शीख सुगुरुकी मान । अग्यानी नररे । अब पर त्रीया कर जान बेन नें माइरे || बेन० ० || ३ || अब जिनवर मुऊ मन जायो सदा गुन गा