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.... रत्नसागर... ॥ ॥ कीया में गणधर प्रेमपती । मुझे वरदायक हे सरसती । करी निर्मल निग्रंथ मती । पूठ पर खमे जागता जती। मुझे बलवंत नई सो ल सती । मिटी मेरी उर्गतकी सब गती । ऐसा घन जिनदाश गावे । अ चल पद भक्तिसें पावे ॥६॥ ॥ ॥ ॥ (8॥
॥ ॥ विकट घट पुरगतका जारी । नीर ज्यां जरती कुमति नारी। बरी नन नैनोंकी महारी । मुब्या केइ कामी संसारी । इनोंकी हो रही खुआरी । जीत्या कोइ सत्य धरमधारी । प्रनु तुम परमारथ पाया। शरण अब जिनदाश आया ॥७॥॥ ॥
॥ ॥ चेत नर निगोदका बासी । कराई जगमें तें हांसी । कुमतिकी पमी गले फांसी । सुमतिसुं रखी हे कदासी । कुमतिकी बसी सेज खासी। मान रह्यो ममताकुं मासी । हियो खोल अरिहंतकों परखो । करो जिनदा श आप सरखो॥८॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥
॥ ॥ अफल नर तेरी जिंदगानी । शीख सुत्रोंकी नहिं मानी। कीया नहिं गुरु निग्रंथ ग्यानी । कानसें लगी कुमति रानी । जगतमें नतर गया पानी । गति तेरी पुरगतिकी ठगनी । सेवक तोरा जिनदाश बाजे। सुधारोगे तुमही काजें ॥९॥ॐ॥
॥ ॥ सफल नर तेरी जिंदगानी । शीख सूत्रोंकी तें मानी। कि या निज गुरु निग्रंथग्यानी । कानसें लगी सुमति रानी। जगतमें अधिक चढ्यो पानी। गति तेरी सुरगतिकी गनी। सेवक तेरा जिनदाश बाजे । सुधारोगे तुमहि काजें १०॥ॐ॥ ॥ॐ॥
॥ ॥ पुनः॥॥ ॥ ॥ चल चेतन अब न कर अपनें। जिन मंदिर जइये। कोसी की जूंमी ना कहीये रे । कीसीकी जृमी ना कहीयें ॥ चल ॥ (ए आंक पी)। चरन जिनवरजी का नेटो । चर० ॥ नवनव संचित पाप करम स ब। तन मनका मेटो । सुकृत कीजें । महाराज । सुकृत०॥ जिनवरका गु ण मज लीजै। समकित अमृत रस पीजै । लान जिनन्नतिको लहीयेरे ॥ लान०॥ चल०॥१॥ करो मत मुखसें वडाई ॥ करो० ॥तजतामस तन म