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रत्नसागर.
(च०) (आंकमी) सिघारथ कुल जनम लियोहै। त्रिसला नदर अवतारो। सुरगण कोम मिली सुरगिर पर । स्नात्र महोदव सारो॥ (च०) १॥ व सुविध पूज रचत जिनवरकी । सफल करत अवतारो । जय जय शब्द करत सुर नरवर । जय २ जगदाधारो॥ (च०) २॥ वाल अवस्था अतु ल वली. प्रनु । सहजा अतिसय चारो । दिवा ले प्रनु केवलपायो। श्री संघ आनंदकारो॥ (च०)३॥ सुंदर सूरत मोहनी मूरत । नाथ निरंज न प्यारो। सीस मुगट सोहै अति सुंदर । गल मोतियनको हारो ॥ (च०) ॥४॥समवसरणकी अदभुत महिमा । देखत नयना गरो । नविजन चा त्रक अति हरषावै । स्वामी नाथ निहारो ॥ (च०)५॥ चरम चौमाशी पावापुरिमें । कीधी जग हितकारो । शोलै पहर लग अमग देसना। प दनिरबाण पधारो॥ (च०) ६॥ काल अनन्त जम्यो नव वनमें । कहत न आवै पारो। अब तो प्रनुको सरण ग्रहीमें । कबहु न गेडु लारो। (च० ) ७॥ दूगम गोत्रे इन्द्र चन्द्र सुत । चंद्र गोविंद ध्रमकारो । जात्रा करी प्रनुकी नगरंग। जनम कृतारथ म्हारो (च०)८॥ सय नगणीस ते तीस मनोहर । अगहन दशमी उजारो। सिषरचंद प्रनु शिवसुख दायक । पूरब पुन्य जुहारो॥ (च०) ९॥ इति पदम् ॥2॥
॥ ॥राग कैखो॥॥ ॥ * ॥ में मुख देख्यो गोमी पारसको । मेरो जनम सफल जयो आज ॥ आजरे में मुख देख्यो गोमी पारसको ॥ मेरो० ॥ (टेक) अन्यदेवनकू बहुत में ध्यायो । तोए न सरयोजी मेरो काज ॥ आ जरे ॥१॥ जव जव लटकत शरणे हुँ आयो । अब तो रखोजी मोरी लाज॥आजरे०॥२॥ कमठ हरावन नागईं तारन । संनलाव्यो नव कार ॥ आजरे० ॥३॥ रूपचंद कहे नाथ निरंजन । तारण तरण जहा ज॥ (नला० ) तारण तरण महाराज ॥ आ०॥ ४॥ इति ॥ ॥
॥8॥ किरपा करोरे गोमीपाश जिनेसर । तुम स्वामी अंतरजा मी॥ टेक ॥ नंचे नंचे गढपर पासजी बिराजे । चारे तरफ ज्ञानी ध्यानी किरपा० ॥१॥ नील वरण तोरो अंग बिराजे । बदनकी जाऊं वलिहा