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दश पञ्चक्खाण आगारार्थः आगारार्थः
३५ पुरुषसें वन नहीभावै । असा जो । चैत्यसंघादि प्रयोजन होनेसें । पञ्चक्खाण काल पूरण हुवा विनां जोजन करै तो व्रत जंग न होय ॥ ७ ॥ सागारी आगारेणं (व्या०) गृहस्थ देखतां साधु जोजन न करै। असी जिनराजकी आज्ञाहै । इसीसें कोई साधुनें एकासनादिक पञ्चक्खाण किया है । जोजन करनेकुं वैगहै । तिस वखत कोईक गृहस्थ साधु पास आय वैठे । तब साधु नस ठिकाणेसुं उठ कर ओरठिकाणे जायके लोजन करै तो व्रत नंग नहोय ॥ और गृहस्थकों यह आगार ऐसें है) कि जिस पुरुषकी निजर लगती होय तो उस आयां नगि कर ओर ठिकाणे नोजन करै तो पच्चक्खाण जंग नहोय ॥ ८॥ आनदृण पसारेणं (व्या०) पगप्रमुख जो एकठे करनेसें । तथा पसारनेसें। थोमासा आसन चल जाय । तो व्रतनंग नहोय ॥९॥ गुरु अनुहाणेणं (व्या० ) आपका गुरु आणेसें । तथा । आपसें । कोई वमा पुरुष आणेसें। विनय निमित्तै । एकासणाादि व्रतमें । जोजन करतो पिण आसन गेम का खडो होय । तोपिण व्रत जंग नहोय ॥१०॥ पारिठावणियागारेणं ( व्या० ) ( सर्व पञ्चक्खाणां मे यह आगार साधुका है ) जो आहार नाखणेंसें बहुत जीव विराधना होती जांण कर (गुरु कहै ) वह सरस आहार है परठोमति। ऐसी आशा देवे (तो) एकासणादि बतधारी साधु । दूसरी वखत आहार करै । तो पिण व्रतनंग नहोय ॥११॥ लेवालेवेणं (व्या०) भोजन करनेका थाल प्रमुख नाजन । तिसकै मांहि घृतादिक विगय द्रव्यका अंश लगाहै । तिसकुं हाथ प्रमुख से पूंगेरा । परंतु किंचित वेमालुमसा रह गया होय । नसभाजनमें आयंविलादि व्रतधारी नोजन कर लेवे। तो व्रत नंग नहोय ॥१२॥ नक्खित्तविवेगेणं (व्याख्या ) आयविलादि पञ्चक्खाणमें ॥ नही खाणे जोग्य जो विगय द्रव्य प्रमुख । (तिसका फरस) खाणे जोग्य द्रव्यसें किंचित् होगया होय । वहखाणे में आजावै । तो व्रत गंग नहोय । ॥१३॥ गिहत्य संसिरणं (व्या) जोजन पुरुषै जिस सेती । असा कुडा आदि नाजन । विगय प्रमुख द्रव्य से वेमालम खरडा होय । प्रत्यक्ष निजरसें कदाचित्मालुम न होय । जो नस वासणसें जोजन पुरसै