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रत्नसागर.
डिराख रोहिणी बाल पीपलामूल बच धमासन रीगणी एलियो चिलोठी कयर बोरिनामूल (इत्यादि) प्रणाहार पिण इच्छासंयुक्त बोना (यहजो ) इछा विना अनिष्ट पणें लीजै । जबतो अनाहारहै । जो इच्छासंयुक्त जावता लीजैतो हार को दूषण लगै । ( अबपच्चक्खाणके आगारोंका अर्थ लिखते हैं ) जिस पञ्चक्खाणमें जितने आगार होय ॥ सो आगार रखके पच्चक्खाण नियम करे | अन्नत्थणा जोगेणं ॥ १ ॥ ( व्याख्या ) अनाजोगटाली । नाग कहियै अत्यन्त विस्मृत होणेंसें ) किया जो ( पच्चक्खाण याद रहै। जुलकर कोई चीज मुंहमें घाली होय वा खाणेमें आई होय पि जाएयां पीछे तत्काल नाख देवें तो पच्चक्खां नाजै नही । जाएयां पबै प्रक्षण करे तो पच्चक्खाण नाजै ॥ १ ॥ पचन कालेणं । ( व्याख्या) कालकी प्रहन्नता | आकाशै गर्छ नडतीहोय । वा आकाशै बद्दलवाया होय । तथा पर्वत प्रमुखकी मोट प्रजावे । सूरज न दीसे । तब नरम पच्चक्खाण काल संपूर्ण हुवो जा कर जोजन करे तो व्रत भंग न होय ॥ ३ ॥ सहस्सागारेणं । ( व्याख्या ) सहसा - कार कही अत्यन्त उतावलकै जोगे । प्रथवा । अकस्मात् विलोवतां तोलतां घृत प्रमुखनो बांटो मुखमें। पमे तो । व्रतभंग न होय ॥ २ ॥ दिसा मोहेणं (व्या० ) दिशकों अजाणतो वैसे । जो दिशा जूल मनुष्य । पूर्वदिशाकुं पश्चिम दिशि जांणें । इस कारणसें । पञ्चक्खाण काल पूर्ण - हुवा विनां भोजन करे तो व्रतभंग न होय ॥ ४ ॥ साहुवयणेणं (व्याख्या) साधूकै बचनसे नग्वाडा पोरिसी आदिक जरमसंयुक्त सुणके । पच्चक्खाण काल पूरण हुवो जाणि कर भोजन करें तो व्रतभंग न होय ॥ ५ ॥ सब समाहि बत्तिया गारे ( व्याख्या० ) पच्चक्खाण काल पूरण हुवां प्रथम ही अकस्मात् शूलादिक रोग ऊपजै । तिससें कदास परिणामोंकी थिरता नरहै । र्त्त रौद्र ध्यान उत्पन्न होय । तब नसरोगी कुं रोग मिटावन वावत औषधादिक देवै । वा आपलेवै । तो पच्चक्खाण जंग नही होय ॥ ६ ॥ महत्तरागारे ( व्या० ) पच्चक्खाण पालसें । जितनी कर्मोकी निर्जरा होती है । नसनिर्जरासें अधिक निर्जरा होने का कारण । और कोई