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रत्नसागर.
॥ | पुनः॥ ॥ ॥ ॥ मन लीनो हमारो जिन चरणारे । पोत जलधि नव तरणारे॥ (म० टेरे)॥ आदि पुरश जगतारण नि शुण्यो । कर्म विकट घन हरना रे॥ (म०)१॥ नानि तात मरुदेवी माता ॥ नंद षन सुख करनारे ॥ (म०)२॥ सल्यादिक प्रगट न जग तत्पर । कुमतांगन दलटरनारे ॥ (म०)३॥ सारंग दृग शशिवदन मनोहर । अंग कनक सम बरनारे (म०) ४॥श्रीजिन हंस सूरीसर जंपै। जिन शमरण दिल धरनारे ॥ (म०) ॥५॥ इति श्री कृषन देव स्तवनम् ॥ * ॥
॥ ॥ (राग किंमोटी)(२)॥ॐ॥ ॥ॐ ॥अजित अजित जिन ध्यान । (झारै मनरे) (अ) (टरेः) जितशत्रु विजयाको नंदनरे । वंदन त्रय युत ग्यान । (मा० ) १॥ त्रिहुं जग तारन टारन अघ कोरे । वारुं तन धन ज्यांन ॥ (मा० अ०)२॥ जिन वचनामृत पान करीजैरे । केवल निरमले ग्यान ॥ (मा० ) ३॥श्री जिन हंस सूरि प्रनु पाएरे । निवृति पुरिंदरम्यान ॥ ( मा० अ०)॥४॥ इति श्रीअजित नाथ स्तवनम् ॥॥ ॥ ॥ ॥ ॥
॥ॐ॥ पुनः॥ ॥ ॥ ॥ यह अरजी मोरी सहियां । मोहितारलो गह बहियां । (य०) मैं नांहि जानुं सहियां (य०)। मैं तारण तरण सुण्यो छै । मैं यातें शरणो गहीयां । इनतें ज्वार लहियां ॥ (मो० य०)॥१॥ इन करमनकै वस होयकै। में नटक्यो चिहुं गति महियां । मैं नांहि जानुं सहियां ॥ (य०) २॥ हित करकै दास निहारै । कर जोडि पमिहुं पश्यां । शिव देति क्युं न सहियां । (मो० य०)॥३॥इति ॥ ॥
॥ ॥ (राग काफी) (५)॥ ॥ ॥ ॥ मुजरो मानी लीजै हो गोमीराय अरज सुणीने मारो (मु०) किरपा काज करी सेवकगर्ने । दिलनर दरशण दीजै हो (गो.) ॥१॥ गुणनिधि गवडी दरशण दीजै । सकल करम दलीजै हो (गो.)॥२॥ रूप विबुध कहै मो मन पनणे । प्रह की प्रणमी जै हो (गो०) ३॥ इति