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रत्नसागर. अहम्मदावाद मकारकि । नासकरी ए अंगनी (स.) वरत्या जय जय कार कि॥४॥ संवत सतर पचावनें (स.)। वरषा ऋतु नन माशकि । दशमी दिन शुदि पक्षमा (सु० ) पूरण थई मन आसकि ॥५॥श्रीजिन धर्मसूरि पाटवी (स.)। श्रीजिनचंद्र सूरीसकि । खरतर गबना राजीया ( स० ) त मु राजै सुजगीसकि ॥६॥ पाठक हरख निधानजी । सहेछ । ज्ञान ति लक सुपसायकि । विनय चंद्र कहै में करी (स.)। अंग इग्यार सिशा यकि । (सहे० )॥७॥ इति श्रीइग्यारै अंग सिशायः॥ ॥ ॥ ॥
॥ ॥ पुनः ज्ञानको स्तवन लि. || ॥ ॥ राग तुमरी ॥ * ॥ मरैरे मनमांनी ज्ञानजरी । (मे० ) परनप गारी सुगुरु बताई । पांचू दे करी। मति श्रुति अवधि अवर मन पर्यव। केवल बोधवरी । ( मे० )॥१॥ तपकर अग्नि मूंस देशनकी । करमें धनल करी। सक्रिय संयम करतासुं मिल । सिघ रसानधरी । ( मे०)॥२॥ पूरण पुन्य मिली मोय सजनी । सकला नन्ददरी। बालकहै अब विसरत नांहीं। पल दिन एकघरी । (मे० ) ॥३॥ इति ॥ * ॥
॥2॥ पुनः आगम स्तवन लि०॥॥ ॥ * ॥ श्रुत अतिहनलो। संघसकल आधार नमुं त्रिभुवन तिलो।(आं कणी ) अरथै श्री बीर जिणंद आख्यो । सूत्रे श्रीगणधर गुरु नाष्यो । तनय थी जे मुनिवर राख्यो ॥१॥ (श्रु०)। जेह थी जगनाव सकल जाणे । नय एकान्त मुनि जन नवितांणें । निश्चइ व्यवहार ते मन आणें ॥२ (श्रु०) जिहां अङ्ग नपाङ्ग अतिरूडा । उबेद पइन्ना नहिं कूमा । मू लसुत्र नन्दी अनुयोग चूमा ॥३॥ (श्रु० )। जिहां निरयुगती सुत्रै संगी वलि भाष्य चूरणि टीका चङ्गी । पंचम अंगै कही पंचाङ्गी ॥४॥(श्रु०) जिहां साधु श्रावक मारग लहियै। संवेग पखी बलि सरदहिये । एत्रिण विन नवमारग कहियै ॥ ५॥ (श्रु०) । जेहनी अनुपेहा नित करिये । नपचारै दूषण परिहरियै । आराध्यां निज अनुन्नव वरियै ॥ ६॥ (श्रु० ) जिन आगमना जे गुणगावै। शुघाशय जे मनमें ध्यावे । ते दमा क ल्याण सदा पावै ॥७॥ (श्रु०)॥इति आगम स्त० ॥ * ॥