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रत्नसागर.
सुख होय । ( ० ) ॥ ४ ॥ अमृतसम जिनधर्मनोरे । मूलए नवपद जा | अविचल अनुभव कारणें जी । नितप्रतिनमत कल्याण ( ० ) ॥ ५ ॥ || ❀ || FF: || # ||
॥ * ॥ ( राग प्रजाती) नवपद ध्यान धरोरे (जविका न०) मन व च काया कर एकते। बिकथा दूर हरो रे ( न० ॥ १ ॥ मंत्रजमी प्ररुतंत्र घरा । इन सबकों बिसरोरे । अरिहंतादिक नवपद जपनें । पुण्य जंकार नरोरे ॥ २ ॥ (न० ) अमसिध नव निध मंगल माला । संपति सहज व रोरे । लालचंद याकी बलिहारी । शिवतरु बीज खरोरे ॥ ३ ॥ ( नव० ) ॥ इति श्रीसिधचक्र स्तवनं ॥ ॥
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॥ * ॥ अथ नवपद थुई लि० ॥ * ॥
॥ ॥ नित प्रति हुं प्रणमुं सिवचक्र सुन नाव । हिवकारज सिद्धि नो लाधो एह उपाय । ऊ नाम पसायें आरति व्याधि पुजाय । इग तुक अनुग्रहाथी सुख संपति मुऊ थाय ॥ १ ॥ श्री अरिहंत नमिये सिद्ध सूरी नवज्ञाय । मुनिवर त्रिक करनें देशण नाण सुहाय । दुगविधि चारितें बुध विध तप मन जाय । ये नवपद ध्यावतां निरुपम शिव सुख थाय ॥ २ ॥ विद्या परवादै जानो ए अधिकार | श्रीगुरु उपदेशें सिद्धचक्र धार । प्रवच न अनुसारें जाप्यो एह विचार । जविजन नित ध्यावो सुरतरु गुणनंकार ॥ ३ ॥ जिनधरम अनुरागी चक्केसरि सुखकार । सेवक पै सुख संपति परिवार। हिव निद्धि नदयकरि चारित्र नंदी मन जाय । जिनचंद सूरी सर खरतर पति सुपसाय ॥ * ॥ इति नवपद स्तुतिः ॥ ॥ 1111 थ जैतीसंयुक्त नवपदली करण विधि जिं० ॥ ॥ ॥ * ॥ ( प्रथम ) सोज शुदि ७ (अथवा ) चैत्रसुदि ७ सें बनी स रू करे । ( कदास ) तिथि घटी हुवे तो बह से, वढी होय तो, आठम सें सरू करै । (पिण) आंबिल नव पूनिमतक करै । ( तिहां ) प्रथम नू मि शुद्ध करके । मांणादिक में चित्रत करे । पीछे बाजोट ऊपर सिद्ध चक्र थापे त्रिकाल पूजा करें। (सोलिखते हैं ) प्रजात समय राई परिक्क मण करके। पीछे वस्त्र मिले है। (जहां ) सिद्ध चक्र स्थापना हे । तहां
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