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नवपदके (९) चै० (तथा ) २४ जिनचैत्य० ३१५ ॥ १॥ स्यक कारण बर्गणा ॥ कार्ये कारण नाव (मु०) कृत्वा जोग सुधामता । लब्धा संखस्वनाव (सु०)॥ २ ॥ पर्याप्ता लघु जोगमें । बृ घि लहै जुगमान (सु०) मध्ये वसु समयें लहै । अंते नौ तेजाण (सु) ॥ ३ ॥ सहकारी मानस मुखा । कारण रम्य वलेण (सु०) प्राप्ताघस्र प्र कारता। सप्त प्रनृतका तेन( सु०) ॥ ४ ॥ तद्रोधन रूपी जलो। चेतन संयमधाम ( सु० ) कर घन मिल पद धर्ममें । कुशल नवतु अनिराम (सु०)॥५॥ इति चारित्रपद० ॥ ॥
॥ॐ॥अथ चारित्र पदस्तुतिः॥१॥ ॥ ॥ करम अपचय दूर खपावै आतम ध्यान लगावै जी। बारै भावना सूधी नावै सागरपार नतारै जी । षटखम राजकुं दूर तजीने चक्री संजमधारै जी । एहवो चारित्रपद नित बंदो तम गुण हि तकारै जी॥ इति चारित्र पद स्तुतिः॥८॥॥
॥ ॥ ॥ ॥ अथ तपपद नमस्कार लि०॥ ॥ ॥॥श्री ऋषनादिक तीर्थनाथ । तनव शिव जाण । बिहिअंत रपि बाह्य । मध्य प्रादश परिमाण ॥ १ ॥ बसु कर मित आमोसही । आदि कलब्धि निदान । नेदै समतायुत खिणें । दृग्धन कर्म विमान ॥२॥ नव मो श्रीतपपद नलोए। इनारोध सरूप । बंदनसें नित हीरधर्म । दूरनवतु नवकूप ॥३॥इति तपपद चैत्यवंदनं ॥९॥ ॥ ॥॥
॥ ॥ अथ तपपद स्तवन लि०॥॥ ॥ॐ ॥ वारश नेद नण्या जिनराजै। वाह्य मध्यतणा जगकाजैरे। (शि वपद श्रेणिं)। तिण नव सिद्धितणा बरग्याता । जिनवर पिण तपना कर्ता रे॥१॥ (शि०) शमता सहिते जिनते नारी । जली कर्म चमु पिणहारी रे ( शि० ) जीव कनकसे कर्म कचोरा । दहै तप पावनका जोरारे (शि०)॥ २ ॥ तप तरुवरना कुशमहै शधि । देव नरनी फलते सिघी रे ( शि० ) पाप सकलहै तमनी राशी । तप जानूसें जाये नाशी रे (शि०)॥ ३ ॥ जस्स पसाये लहियै वारू । लब्धां सगली जगहित कारू रे (शि०) अति मुक्कर फुण साध्यता हीना । काम तातें बारू कीनारे।