________________
३१४
रत्नसागर
॥ ॥ अथ ग्यानपद स्तवन । लि० ॥ * ॥
॥ * ॥ झांरै प्रति नारंगे (ए चाल ) जिनवर जाषित आगम नणि या । तत्व यथास्थिति गमिया जी ( म्हारै जगजनतारू ) ते उत्तम बरना कहायै । जवि जन ग्रहनिशि चाहै जी ( म्हा० ) ॥ १ ॥ न का कुपंथ सुपंथा । पेयापेय ग्रंथाजी ( म्हा० ) देव कुदेव हित हित धारी । जाणें जेण विचारी जी ( म्हा० ) || २ || श्रुति मति दोय द्री सा । तेण परो बिचारूजी । ( म्हा० ) नही मण केवल है वारू | जीव प्रत सुधारू जी ( म्हा० ) ॥ ३ ॥ प्रयवि जस्स बलें जगजाणें । लोकादिक अनुमानें जी । ( म्हा० ) त्रिभुवन पूजै जासु पसायें । धारी शुद्यवसायें जी ( म्हा० ) ॥ ४ ॥ नाणा वरणी उपशम हृयथी । चे तन नाकुं बिलशैजी ( म्हा० ) । सप्तम पद में नविजन हरषै । निशदिन कुशलता निरखै जी (म्हा० ) । इति नाणपद स्तवनं ॥ ७ ॥ * ॥
॥ * ॥ अथ ग्यान पदस्तुतिः ॥ * ॥
॥ ॐ ॥ मतिश्रुत इंद्री जन्नित कहियै जहीये गुण गंभीरो जी । आतमधारी गणधर विचारी द्वादश अंग बिस्तारोजी । अवधि मनपर्यव केवल वलि प्रत्यक्ष रूप अवधारोजी । ए पांच ग्यानकुं बंद पूजो जविजननें सुखकारो जी ॥ ॥ इति ज्ञानपदस्तुति ॥ ७ ॥ ॥
॥ * ॥ अथ अष्टमपद नमस्कार लि० ॥ * ॥
॥ * ॥
॥ * ॥ जस्स पयायें साहु पाय । जुग २ समितेंद | नमन करें सुन जावलाय । फुण नरपति वृन्द ॥ १ ॥ जंपै धरि अरिहंतराय । करि कर्म निकंद । सुमति पंच तीनगुप्तियुत । दै सुक्ख प्रमंद ॥ २ ॥ इषु कृति मान कषाय थीए । रहित लेस सुचिवंत । जीव चरत्तकुं हीरधर्म । नमन करत नितसंत ॥ ३ ॥ इति चारित्रपद चैत्यवंदनं ॥ ८ ॥ ॥
॥ ॥
॥ * ॥ थचारित्र पद स्तवन लि० ॥ ॥ ॥ ॐ ॥ निर्विकल्प अज निर्गुणी । चिदानास निस्संग (सुग्यानी सां लो) मूर्तिहीन चेतन करै । रूपी पुदगल रंग || ( सुग्यानी सां० )