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विजयसेठ (तथा) कमलावती सि०
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जिम तिम। फल अह्म हुवै तेतलोए ॥ ८ ॥ देस । सेव बिजय वली। बिजया जार्या तसु घरैए। जावयती ग्रह वास । तेहनें जोजन दधां फल हुवै तेतलो ॥ ९ ॥ जिणदास कहै जगवंत । तेमांहि एतजा कुण गुणकुण व्रत घणा ए । केवली कहे अनंत । गुण तसु शीलना । कृष्ण शुक्लपक्ष व्रत तणा ए ॥ १० ॥ ( ढाल ) ३ ॥ दानकहै जगहुँ बमो एचाल || केवलीनें मुख सांगली | श्रावक तेजिनदासरे । कदे हिवा बीयो । पूरै निज मन आसरे ॥ ११ ॥ ( धन २ शील सुहामणो ) ॥ शी ल समो नही कोईरे । शीलै देव सानिध करे । शीजथी शिव सुख होईरे ॥ ६० ॥ १२ ॥ सेठ विजय बिजया जणी । जगतसुं भोजन देईरे । सहस चोरासी साधुना । पारणानो फल लेईरे ॥ ध० ॥ १३ ॥ मात पिता पूबै तेहनें। एहनो शील वखापरे । केवलीनें मुख जिम सुरायो । तिम कहै ते गुण जागरे ॥ ६० ॥ १४ ॥ सहस चोरासी साधुनें । पारणो दीये कोई जायरे । कृष्ण शुक्ल पक्ष दंपती । भोजननो फल थायरे ॥ ६० ॥ १५ ॥ मात पिता जबजाणीयो । प्रगट हुआ संबंधरे । सेठ विजय बिजया ली यो | चारित्र प्रतिबंधोरे ॥ ६० ॥ १६ ॥ ( ढाल ) ४ ॥ केवलीनें पासै । चारित्र लेई उदार । मन ममता मूंकी । पालै निरती चार ॥ १७ ॥ प्राठ क रम खपावी । पाम्यो केवल नाण । ते मुगतै पहुता । दंपती सुगण सुजा
॥ १८ ॥ तेहना गुण गावै । जावे जे नर नार । ते वंबित सुख लहै । पहुँचै नवनें पार ॥ १९ ॥ ( कलस ) इम कृष्णपक्षनें शुक्ल पख्यै शील पाल्यो निरमलो । ते दंपतीना जाव सुर्वे सदा सुन गुण सांगलो । जिम डुरिय दोहरा दूर जायै सुक्ख थायै बहुपरै । वलि सकल मंगल मनह बँ बित कुशल नित घर अवतरे ॥ इति कृष्ण शुक्ल पक्ष चौढा० ॥ * ॥
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॥ * ॥ अथ इखुकार राजा नृगुप्रोहित सि० ॥ * ॥
॥ * ॥ महिला में बैठी राणी कमलावती । जीणीतो न मारगखेह । ala तमासो खुकार नगरमें । कोतिक उपनो मन में एह ॥ १ ॥ (सांगल हे दासी आज नगरमें बहदो किम घणो ) । कातो परधान सखी मंगीया ॥ काकेई लूंट्या राजा गांव। काकोई गाडयो धन नीसरयो । गामा रह्या बे
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