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रत्नसागर.. . ॥ ॥ अथ श्री अजित जिन स्तवन ॥ॐ॥ ॥ * ॥ (अनंत जिन आपज्योरे)॥एचाल ॥झानादिक गुण संपदारे तुझ अनंत अपार । तेशांजलतां ऊपनीरे । रुचि तिण पारनतार ॥१॥अजि तजिन तारज्योरे। तारज्योदीन दयाल । अजित जि० (प्रांकणी ) जे जे कारणजेहनोरे । सामग्री संयोग । मिलतां कार्य नीपजेरे। कर्ता तनय प्रयोग ॥२॥ अ० ता॥कार्य सिधि कर्ता वसुरे। लहि कारण संजोग । निज पद कारक प्रनु मिल्यारे । होय निमित्त मनोग ॥ ३ ॥ अ० ता. अ० अज कुल गत केसरी लहरे। निज पद सिंघ निहाल । तिम प्रजुनक्तं लवि लहरे। आतिम शक्ति संजाल ॥४॥ (अ० ता.)॥ कारण पद कता परे करि आरोप अनेद । निज पद अर्थी प्रनुथकीरे । करै अनेक नमेद ॥ ५ ॥ (अ० ता० अ०)अहवा परमातम प्रचूरे। परमानंद स्वरूप। स्पामाद सत्तार सीरे। अमल अखंम अनूप ॥६॥ (अ० ता० अ०.) आरोपित सुख भ्रमट ख्योरे।जास्यो अव्याबाध । समस्यो अनि लाखी पणोरोकर्ता साधन साध्य ॥७॥अ० ता० अ० ॥ग्राहकता स्वामित्वतारे । व्यापक प्रोक्ता नाव । का रणता कारज दशारे । सकल ग्रां निज नाव ॥८॥ अ० ता० अ० ॥ श्रधा नासन रमणतारे। दांनादिक परिणाम । सकल थया सत्तारसीरे। जिन वर दरशन पॉमि ॥९॥अ.ता. अ॥ तिणें निर्यामक माहणारे। वैद्य गोष आधार । देवचंद सुख सागरूरे। नाव धरम दातार ॥१०॥ अ० ता० अ०॥ इति श्री अजित जिन स्तवनं ॥ ॥
॥ ॥ ॥ ॥ अथ सिशायमाला लिख्यते ॥ * ॥ ____॥ ॥ ढंढण रिषजीनें बंदणा ॥ हुंबारी ॥ तकृष्टो अणगाररे ॥ हुँबारी लाल ॥ अनिग्रहलीधो एहवो ॥ हुं० ॥ लेस्यु सुछ आहाररे. ॥ हुं० ॥१॥०॥ नितप्रति कठै गोचरी ॥ हुं० ॥ नमिलै शुष आहाररे ॥ १० ॥ मूल नले अणसूझतो ॥ १० ॥ पंजर कीधो गातरे ॥ हुँ ॥२॥ ढं० ॥ हरिपूलै श्रीनेमिनें ॥ हुं० ॥ मुनिवर सहस अढाररे ॥ हुँबा ॥ उतकृष्टो कुण एहमैं ॥ १० ॥ मुझनें कहो विचाररे ॥ हुँबा० ॥ ढंढ० ॥ ॥३॥ ढंढण अधिको दाखियो । ०॥श्रीमुख नेमि जिणंदरे ॥ १० ॥