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रत्नसागर. हरष सानिध कहै मुनि इम धर्मसी ॥३४॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ इति श्री चतुर्दश गुण स्थान विचार स्तवनं ॥ * ॥ ॥॥ ॥॥
॥ ॥ समवसरण विचार गर्षित स्तवन लि० ॥ * ॥
॥ ॥ (हा) श्रीजिन सासन सेहरो । जगगुरु पास जिणंद । प्रण मी जेहना पाय कमल । आवी चौसठ इंद्र ॥१॥ तीर्थकर आवै तिहां । त्रिगमो करै तयार । सम कित करणी साचवै । एह कहुं अधिकार ॥२॥ करै प्रसंसा समकिती । मिथ्थात्वी होवै मूंक । सूर्य देख हरखै सहू । घणे अंधारै घूक ॥३॥ॐ ॥ ढाल वीर बखाणी० एचाल ॥ * ॥ आप अरिहंत जलै आविया जी । गावै अपळरह गंधर्व । समवरण रचै सुरवराजी । सं खेपै ते कहुं सर्व ॥ ४॥आ०॥ जुवन पति वीश इंद्रे मिल्या जी । सोलह ब्यंतर सार । जोइश 5 दश वेमाणिय जुया जी । चौसठ इंद्र सुविचार ॥५॥ आ० ॥ पवन सुरपुंज परमार जैजी । नृमि योजन समनान। मेघ कुमर रचै मेघनें जी। करीय सुगंध टिमकान ॥६॥ आ० ॥ अगर कपूर सुन्न धूपणाजी । करय श्री अगन कुमार । वांएव्यंतर हिव वेगसुं जी । रचय मणिपीठका सार ॥ ७ ॥ आ० ॥ पुहुप पंच वरण ऊरध मुखै जी। वरष ए जानु परिमाण । नवणव देव त्रिगमो नलो जी। करय ते सुणन सुजाण ॥ ८॥आ० ॥ रचय गढ प्रथम रूपा तणोजी । सोवन कांगरै सा र। रवि शशि रयण कोसीसको जी। कनक नो बीय प्रकार ॥९॥ आ०॥ रतन गढ रतननें कांगर जी । रचय वेमाणि सुरराज । जलो त्रीजोगढ जी तरजी। जीहां विराजै जिनराज ॥ १० ॥ ॥जीत ऊंची धणुं पांचसै जी । सवा तेत्रीस विसतार । धनुषसै तेरगढ आंतरोजी । प्रौल पंचास ध णु च्यार ॥११॥आ०॥ दश पंच २ त्रिहुं गढतणी जी । पावमी वीशह जार। थाक श्रम नहीय चढतां थकां जी । एक कर उबविस्तार ॥ १२ ॥ आ० ॥ पंच धणु सहस पृथवी थकी जी । नच रहै त्रिगढ आकाश । ते हतल सहु यथा स्थित वसै जी । नगर आराम आवाश ॥१३॥ आ० ॥ तोरण चिहुं २ दिस तिहां जी। नील मणि मोर निरमाण । उसय धणु मध्य मणि पीठिका जी । नच जिण देह परिमाण ॥१४॥आ०॥ च्यार आस