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पंचसमवाय स्तवन
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अढारह वलि सहस चन्वीस । इकसो वीसोत्तर हुइ संख्या निसदीस ॥ ९ ॥ ( ढाल ४ ) चोपईनी ॥ ॥ इण परि मिलामि डुक्करुंदेई । नविक तरया जवजल निधिकेई । तरे बै वलि गलि तरिसी । निरमल केवल लखमी वरिसी ॥ १० ॥ इरियावही धरम गंगाजल । न्हाण करे प्रातमक रि निरमल । में मुखनाषै वीर जिणेसर । सूत्रकरी गूंथे ते श्रुतधर ॥ ११ ॥ इम पक्किमी मुनिवर प्रमत्तो । वीरसीस केवल पदपत्तो । त्रिकरण सुध तपय प्रणमी जै । मानव जनम सफल इम कीजे ॥ १२ ॥ ( कलश ) ॥ ॐ ॥ इम वीरजिणवर ग्यान दिएयर सयललोय सुहंकरो । तियलोय सामी सिधिगामी सुद्ध धरम धुरंधरो । नवजाय लक्ष्मी कीर्त्ति सीसैं जैनवा णी मन धरी । गणि विल्सन तवन करि इम संयो जावै करी ॥ १३ ॥ इति इरियावही मिचामि दुक्कम संख्या स्तवनं ॥ ॐ ॥ 11 11
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॥ * ॥ अथ पंचसमवाय स्तवन लि० ॥
॥ ॥ सिधारथ सुतवदियै । जगदीपक जिनराज । वस्तुनाव सब जा पिये। जिन श्रागम थी आज ॥ १ ॥ स्यादवादथी संपजै । सकल वस्तु विख्यात । सप्तरंगी रचना विना । बंधन बैसे वात ॥ २ ॥ वाद वदे नय जूजु
। आप आप गम। पूरण वस्तु विचारतां । कोई न आवै काम ॥ ३ ॥ अंध प्ररूपै एहगज । ग्रही अवयव एकेक । दृष्टिवंत लहै पूर्णगज । अ वयव मिली अनेक ॥ ४ ॥ संयुत सकल नये करी । जुगत २ सुध बोध । धन जिनसासन जगजयो । तिहां नही कोई विरोध ॥ ५ ॥ ( ढाल १ मा साजरी राग ॥ ) श्रीजिन सासन जगजयकारी । स्यादवाद शुद्धसरूपरे । नयएकांत मिथ्यात्वनिवारण। अकल अभंग अनूप ॥ ६ ॥ श्री० । कोई कहै एकाल तर्फे वस । सकल जगत गत होयरे । कालै नपजै विणसे का लै। वरन कारन कोयरे ॥ ७ ॥ श्री० । कालै गर्भ धेरै जगवनिता । कालै जनमें तरे । काले बोलै काले चाले! काले कालै घर सूतरे ॥ ८ ॥ श्री० ॥ का दूध की ही थायै । काले फल परिपाकरे । विविध पदारथ का ल पाये। अंतकरै बेवाकरे ॥ ९ ॥ श्री० ॥ जिन चनवीसे बारचकवै । वासुदेव बलवंतरे । कालै कविलत कोई नदीसे । जसुकरता सुर सेवरे