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रत्नसागर.
को हो जवहर व्यापार कि । मणि हारी मन किम गमें । जिण कीधो हो सदा हाल हुकम्म कि । ते तूं कारो किम खर्मे ॥ ९ ॥ (मो० ) तूं साहिब हो मोरो जीवन प्राण कि । हुँ सेवक प्रजु ताहरो । मुऊ जीवत हो आज जनम प्रमाण कि । जव दुख नागो माहरो ॥ १० ॥ ( मो० ॥ तुम मूरति हो देखता प्राय कि । समवसरण मुऊ संचरे । जिन प्रतिमा हो जिन सरिषी जाय कि । मूरख जे सांसो करे ॥ ११ ॥ ( मो० ) तुझ दरसण हो मुऊ प्राणंद पूर कि । जिम जग चंद चकोरमा । तुहा नामें हो मोरा पाप पुलाय कि । जिम दिन कुर्गे चोरमा ॥ २ ॥ ( मो० ) तुम्ह दरसण हो मुऊ मन नवरंग कि । मेह आगम जिम मोरमा । तुहा नामें हो सुख संपत्ति थाय कि । मन वंबित फल मोरडा ॥ १३ ॥ ( मो० ) हूँ मां हो हिव अविहरु प्रेम कि । नित नित करूं निहोरमा । सुऊ दे यो हो स्वामी जव जव सेव कि । चरण न बोऊं तोरमा ॥ १४ ॥ ( मो० ) कलश ॥ इम अमर सर पुर संघ सुख कर मात नंदा नन्दनो । सकलाप शी तल नाथ स्वामी सकल जन श्रानंदनो । श्रीवह लंबन वरस कंचन रूप सुंदर सोह ए । एतवन कीधो समय सुंदर सुणित जनमन मोह ॥ १५ ॥ इति श्री शीतल नाथ जिन स्तवनम् ॥ १२ ॥
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॥ * ॥ अथ ८४ आसातना स्तवन लि० ॥
॥ * ॥ (ढाल ) विलसै कहिनी ॥ जय २ जिए पास जगत्र धणी । सोना ताहरी संसार झुणी । आयो हुं पिण घर आस घणी । करिवा सेवा तुम चरण तणी ॥ १ ॥ धन २ जे न पडै जंजाले । उपयोग सुं जैसे जिन थाले । सातना चनरासी टालै । सास्वता सुख ते हीज संजालै ॥ २ ॥ जे नाखै श्लेखम जिन हरमें । कलह करै गाली जूयरमें । धनुषादि कला सीखा दूकै । कुरलो तंबोल नखें थूकै ॥ ३ ॥ सुरे वायवडी लघु नीत तणी | संज्ञा कुंगुलिया दोष सुणी । नख केस समारण रुधिर क्रिया । चांदीनी नाखे चांबडिया ॥ ४ ॥ दांतानें वमन पीये कावो । खावे धांणी फुली खावो । सूने सामण विसरावे । अज गज पसुनें दाम दावे ॥ ५ ॥ सिर नासा कान दसन आखे । नख गान वपुषना मल नाखे । मिलणो
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