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रत्नसागर.
॥ ॥ अथ मोटी पंचतीर्थ प्रारती ॥ ॥
॥ * ॥ पहली रे आरती प्रथम जिणंदा । शत्रुंजय मंमण रुपन जि दा। जय जय आरती आदिजिणंदकी ॥ दूशरी भारती मरुदेवी नंदा । जुगला धरम निवार करंदा ॥ जय० ॥ १ ॥ तीशरी आरती त्रिभुवन मो हे । रत्न सिंघासन मारा प्रभुजीनें सोहे ॥ जय० ॥ चोथी प्रारति नित्य नवी पूजा | देव रूप देव प्रवर न दूजा ॥ जय० ॥ ॥ पांचमि प्रार ति प्रभुजीनें जावे । प्रभुजीना गुण सेवक इम गावे ॥ ज० ॥ ३ ॥ * ॥ आरती कीजें प्रभु शांति जिणंदकी । मृगलंबनकी में जानं बलिहारी । जय जय आरती शांति तुमारी । विश्वसेन अचिराजीको नंदा । शांति जिद मुख पूनमचंदा ॥ जय० ॥ ४ ॥ आरति कीजें प्रभु नेम जिणंद की । शंख लंबनकी में जानं बलिहारी ॥ ० ॥ समुद्रविजय शिवा देवीको नंदा । नेमि जिणंद मुख पूनमचंदा ॥ ० ॥ ५ ॥ रति कीजै प्रभु पाश जिणंदकी । फणिदलंबनकी में जानं बलि हारी ॥ अश्वसेन वामा देवीको नंदा । पाश जिणंद मुख पूनमचंदा ॥ प्र० ॥ ६ ॥ आरति कीजै महाबीर जिणंदकी | सिंह लंबनकी में जानं ब लिहारी ॥ ० ॥ शिवारथ त्रिशलाको नंदा | बीरजिणंद मुख पूनम चंदा ॥ ० ॥ ७ ॥ आरति कीजें प्रभु चोवीश जिणंदकी। चोवीश जिदिकी में जान बलिहारी । चरणकमल नित सेवत इंदा । चोवीश जि द मुख पूनम चंदा ॥ ० ॥ ८ ॥ कर जोगी सेवक इम बोले । नहि कोई माहरा प्रभुजीनें तोले ॥ ० ॥ ९ ॥ ॥ ॥ ॥ इति ॥ ॥ ॥
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