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रत्नसागर.
॥ * ॥अथ संध्याकाल सामायक बिधि लि०॥
॥ॐ॥ हिवै पानले पहुर धर्मशाला प्रमार्जी । वस्त्रादि पमिलेहै । जो अवेलो आयो हुवै (तो) दृष्टि पमिलेहण करै । पचै । गुरु आगै (अथ वा)थापनाचार्यजी आगै आवी । नूमी प्रमार्जी । आसण बांम पास यूं की । खमासमण देई ( कहै) इछाका० सं० न० । सामायिक मुह पत्ती पमिलेहुँ (गुरु कहै पमिलेहेह) प. इथं कही । वले खमासमणदेई इलाका० सं० न० । सामायक संदिस्सा ( गुरु० संदिस्सावेह ) फेर खमासमण देई । इलाका० सं० न० । सामायक गन ( गुरु ठाएह) पढ़ इलं कही । फेर खमासमण देई । अर्घावनत थई । तीन नवकार गु पी (कहै) इडकार जगवन् पसान करी सामायिक दंग नचरावो जी (गुरु नचरावेमो) प । करेमि नंते सामाश्यं (इत्यादि) सामायक सूत्र गुरुवचन अनुनाषण करतो थको । तीन वार नचरी । खमासमण देई। इछाका० सं० न० । इरिया वहियं पमिकमामि (गुरु कहै पमिकमह) प3 इदं कही । इलामि पमिक्कमि । इरिया वहियाए ( इत्यादि पाठे इरि यावही पडिक्कमी । १ लोगस्स नो कासग्ग करी । णमो अरिहंताणं क. ही। कानसग्ग पारी । मुखें प्रगट लोगस्स कही । नीचावैसी । मुहपत्ती पडिलेही । वांदणा देई (कहै) इन्कार नगवन पसान करी पञ्चक्खाण करावोजी पवै (गुरु) दिवस चरम पञ्चक्खाण करावै ॥ गुरु अन्नावै था पनाचार्य समहें (अथवा) स्वमुखें (तथा ) वमेरा साधर्मी मुखें पचखै (अने) जो तिविहार नपवास कीधो हुवै (तो) मुहपत्ती पमिलेही । पञ्चक्खाण करै । वांदणा नद्यै (अने) जो चनविहार नपवास हुवै (तो) पच्चक्खाण करवो नही । ते माटै । मुहपत्ती नही पमिलेहै । एविस्तार वि धि । प १ खमासमण देई । इहाका० सं० न० । सिशाय संदि स्सा (गुरु कहै संदिस्सावेह ) पचै इई कही । वले खमासमण देई । इच्छा । सं० । न। सिज्ञाय करु (गुरु० करेह ) पढ़ इचं कही । ख मासमण देई । ऊनो थको (मधुरस्वरें)८ नवकाररनी सिशाय करे । पड़े खमासमण देई । इछा० सं० न० । बैसणो संदिस्सा ( गुरु० सं