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________________ ३६६ संस्कृत साहित्य का इतिहास कहते हैं । ब्रह्म माया में प्रतिबिम्बित होता है और संसार के तुल्य दृष्टिगोचर होता है । जब माया में सत्व अंश को प्रधानता रहती है और उसमें ब्रह्म का प्रतिबिम्ब पड़ता है तो वह 'ईश्वर' कहा जाता है । और जब माया में सत्व अंश गौण रहता है और उसमें ब्रह्म का प्रतिबिम्ब पड़ता है तो उसे जीवात्मा और संसार कहते हैं । अतएव वही ब्रह्म देवता, जीवात्मा और संसार के रूप में प्रकट होता है। यह भी माना जाता है कि अन्तःकरण माया से उत्पन्न होता है और जब अन्तःकरण में ब्रह्म का प्रतिबिम्ब पड़ता है, तब वह जीवात्मा कहा जाता है । माया से उत्पन्न अन्तःकरण अनेक है, अतः जीवात्मा भी अनेक हैं। माया के इस आवरण के करण ब्रह्म का वास्तविक रूप अज्ञात रहता है, अतएव यह संसार सत् प्रतीत होता है । ब्रह्म सत्, चित् और अानन्दमय है । सत्, चित् और आनन्द ये ब्रह्म के विशेषण नहीं हैं । ब्रह्म स्वयं सत् , चित् और आनन्दरूप है । ब्रह्म निर्गुण है। अद्वैतमत अद्वैत को अनुभूति तक संसार का अस्तित्व स्वीकार करता है । अतएव अन्तःकरण में प्रतिबिम्बित ब्रह्म जीवात्मा के रूप में विद्यमान रहता है और उसमें कतिपय गुण भी विद्यमान रहते हैं । माया में प्रतिबिम्बित ब्रह्म देवताओं के रूप में विद्यमान रहता है और उन देवों में अनेक गुणों को सत्ता रहती है। अतएव जीवात्मा के लिए आवश्यक है कि वह देवों की उपासना करे । देवों की उपासना तथा निष्काम भाव से नैत्यिक कर्म करने से जीवों का चित्त या अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और उसमें सत्व, रजस् और तमस् का प्रभाव नहीं रहता है। तब वह निर्गुण हो जाता है और उस पर माया का कुछ भी प्रभाव नहीं रहता । तब मायारहित शुद्ध ब्रह्म ही शेष रहता है। उस समय जीवात्मा का अस्तित्व नहीं रहता है, क्योंकि वह अविद्या या अन्तःकरण में ब्रह्म का प्रतिबिम्ब मात्र है । इस प्रकार ब्रह्म और जीवात्मा में एकत्व की स्थापना की जाती है । यही तत्त्व (वास्तविकता) है, जिसकी शिक्षा उपनिषदें देती हैं । इस एकत्व के कारण ही इस शाखा को अद्वैत मत कहा
SR No.032058
Book TitleSanskrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV Vardacharya
PublisherRamnarayanlal Beniprasad
Publication Year1962
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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