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आस्तिक दर्शन और धार्मिक दर्शन
३६५ में प्रकट किए गए चित्सुख के विचारों का खण्डन किया है । मधुसूधन सरस्वती ने अपने ग्रंथ अद्वैतसिद्धि में न्यायामृत का खण्डन किया है और रामतीर्थ ने अपने ग्रन्थ तरंगिणी में अद्वैतसिद्धि का खण्डन करके द्वैतमत की पुष्टि की है । व्यासयति ने अपने पूर्ववर्ती लेखकों के ग्रन्थों की भी टीका की है । उसने जयतीर्थ के प्रपंचमिथ्यात्त्वखण्डनपंचिका की टोका भावप्रकाशिका की है। जयतीर्थ के ब्रह्मसूत्रभाष्यतत्त्वप्रकाशिका की टीका तात्पर्यचन्द्रिका की है । राघवेन्द्रयति ने जयतीर्थ आदि के ग्रन्थों को महत्त्वपूर्ण टीका को है । उसने जयतीर्थ की तत्त्वप्रकाशिका को टीका भावदीपिका नाम से को है और जयतीर्थ की ही न्यायसुधा को टोका परिमल नाम से की है। उसने भगवद्गीता पर एक स्वतन्त्र टीका गीतार्थसंग्रह नाम से की है । उसने मध्व के ब्रह्मसूत्रभाष्य को टोका तन्त्रदीपिका नाम से को है । उसको न्यायमुक्तावली द्वैतमत का एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है। द्वैतमत के अन्य मुख्य लेखक वादिराज, विजयीन्द्र और श्रीनिवासतीर्थ हैं।
अद्वैतमत इस मत के अनुसार केवल ब्रह्म की ही सत्ता है । यह संसार जो कि सत् दिखाई पड़ता है, वस्तुतः सत् नहीं है। यदि यह सत् होता तो पहले भी ऐसा रहा होता और भविष्य में भी इसी प्रकार बना रहता । जो वस्तु किसी क्षण में उत्पन्न होती है और दूसरे किसी क्षण में नष्ट हो जाती है, उसे सत् नहीं कह सकते हैं। यह संसार परिवर्तनशील है। इसका आदि और अन्त है । मरुमरीचिका की तरह यह सत् दृष्टिगोचर होता है । यह संसार जो दृष्टिगोचर हो रहा है, वह माया के कारण ही दिखाई पड़ता है । माया आदिकाल से ब्रह्म को घेरे हुए है । यह माया तीन गुणों से युक्त है-सत्त्व, रजस् और तमस् । माया को न सत् कह सकते हैं और न असत्, वह अनिर्वचनीय है। यह माया असत् है, क्योंकि इसका विनाश माना जाता है । इस माया को अज्ञान, अविद्या और मोह नाम से पुकारा जाता है । इसके दो स्वरूप हैं। एक स्वरूप में सत्त्व अंश प्रधान रहता है और दूसरे स्वरूप में सत्व अंश गौण रहता है । प्रथम स्वरूप में इसको माया कहते हैं और द्वितीय स्वरूप में इसको अविद्या