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मीमांसा दर्शन
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ये रहीं - - संसार अपरिवर्तनशील है, इस संसार से पृथक् स्वर्ग कोई नहीं है, देवता शरीर रहित होते हैं इत्यादि । बाद में इस दर्शन में श्रास्तिकवाद को विशेष प्रश्रय दिया गया । वेदोक्त कर्मकाण्ड को करना कर्तव्य है । ये कर्म तीन प्रकार के हैं -- नित्य ( दैनिक ), नैमित्तिक ( विशेष कारण से करने योग्य ) और काम्य (ऐच्छिक) कर्मकाण्ड की विधि का आत्मा पर प्रभाव पड़ता है । यज्ञादि विधिपूर्वक करने और न करने का तदनुसार ही आत्मा पर पृथक् फल होता है । नैत्यिक कमों को करना अनिवार्य है, अन्यथा पाप चढ़ता है । । नैतिक कमो को करने से आत्मा पवित्र होती है । नैमित्तिक और काम्य कर्म सामयिक आवश्यकता तथा कर्ता की इच्छा निर्भर है । तदनुसार ही उन्हें करना चाहिए ।
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मीमांसा दर्शन की दो प्रमुख शाखाएँ हैं— भाट्ट शाखा और प्राभाकर शाखा । भाट्ट शाखा के आचार्य प्रमाणों की संख्या ६ मानते हैं । उनके मतानुसार ६ प्रमाण ये है-- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, श्रर्थापत्ति और श्रनुपलब्धि । प्राभाकर शाखा के प्राचार्य प्रमाणो की संख्या ५ मानते हैं । वे उपर्युक्त छः प्रमाणो में से अनुपलब्धि को प्रमाण नहीं मानते हैं ।
पूर्व मीमांसा-सूत्रों के रचयिता जैमिनि ऋषि हैं । इन सूत्रों की संख्या २७४४ है । मीमांसा- दर्शन १२ अध्यायों में विभवत है । इस दर्शन का समय चतुर्थ शताब्दी ई० पू० समझना चाहिए | इसमे लगभग एक सहस्र प्रकरण हँ । प्रत्येक में व्याख्या के लिए विभिन्न सिद्धांत ( न्याय ) दिए गये हैं । इन न्यायों पर ही व्याख्या के उत्तम और प्रामाणिक सिद्धान्त निर्भर है । इन सूत्रों पर उपवर्ष ने वृत्ति ( टीका ) लिखी है, वह नष्ट हो गई है । उपवर्ष का दूसरा नाम बोधायन था । शबरस्वामी ( लगभग २०० ई० ) ने म मांसासूत्रों की टीका मीमांसासूत्राभाष्य नाम से की है । शबरस्वामी ने उल्लेख किया है कि उससे पूर्व मीमांसा - सूत्रों का भाष्य उपवर्ष, भर्तृ मित्र, भवदास और हरि आदि ने किया था । उपवर्ष और शबरस्वामी आदि ने हो म मांसा-दर्शन दार्शनिक विषयों पर विवेचन का प्रारम्भ किया था ।
सं० सा० इ० - २५