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आस्तिक-दर्शन
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में कारिकावलि नामक ग्रन्थ लिखा है । इसका दूसरा नाम भाषापरिच्छेद है। विश्वनाथ ने ही कारिकावलि की टीका सिद्धान्तमुक्तावलि नाम से की है। . उसने न्यायसूत्रों पर भी टीका की है । दीधिति के टीकाकार जगदीश (लगभग १६३५ ई०) ने तीन और ग्रन्थ लिखे हैं - (१) अर्थविज्ञान विषय पर शब्दशक्तिप्रकाशिका, (२) न्यायवैशेषिक के सिद्धान्तों पर तमित और (३) प्रशस्तपादभाष्य की टीका भाष्यसूक्ति । लगभग इसी समय लौगाक्षि भास्कर ने तर्ककौमदी नामक एक लघु ग्रन्थ लिखा है। गदाधर ने उदयन के आत्मतत्त्वविवेक को टीका की है ओर अर्थविज्ञान विषय पर दो स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे हैं-- व्युत्पत्तिवाद और शक्तिवाद । अन्नंभट्ट (लगभग १७०० ई० ) ने तर्कसंग्रह नामक पुस्तक लिखी है और उसको टीका तर्कसंग्रहदीपिका नाम से की है। न्याय वैशेषिक दर्शन के प्रारम्भिक छात्रों के लिए यह पुस्तक अत्यन्त प्रसिद्ध हो गई है।
सांख्य-दर्शन इस दर्शन के सूक्ष्म तत्त्व वैदिक काल में भी उपलब्ध होते हैं । भगवद्गीता जैसे प्राचीन ग्रन्थों में सांख्य शब्द का 'ज्ञान' अर्थ में प्रयोग उपलब्ध होता है। इस दर्शन के संस्थापक कपिल ऋषि माने जाते हैं ।
इस दर्शन के अनुसार व्यक्त (प्रकट), अव्यक्त (अप्रकट) और ज्ञ (ज्ञाता) के ज्ञान से सांसारिक दुःखों की समाप्ति होती है । इस दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द ये तोन प्रमाण हैं । यह दर्शन वैदिक कर्मकाण्ड को विशेष महत्त्व नहीं देता है । इस संसार में प्रकृति और पुरुष दोनों स्वतन्त्र तथा अविनाशी सत्ताएँ हैं । प्रकृति में तीन गुण हैं--सत्त्व, रजस् और तमस् । ये तीनों साम्यावस्था में रहते हैं। जब इस त्रिगुण की साम्यावस्था में अन्तर पड़ता है, तब सष्टि का प्रारम्भ होता है। प्रकृति से महत् या बुद्धि उत्पन्न होती है । महन से अहंकार और अहंकार से ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ, मन और ५ तन्मात्राएँ ( ५ भूतों के सूक्ष्म रूप ) उत्पन्न होती हैं । ५ तन्मात्राओं से ५ स्थूल ( ५ तत्त्वों ) की उत्पत्ति होती है । स्थूल पाँचों तत्त्व में से प्रत्येक