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संस्कृत साहित्य का इतिहास
यह शाखा मध्यमार्ग को अपनाने के कारण माध्यमिक नाम से प्रचलित हुई । १०० ई० के लगभग प्रमख बौद्धों ने इन चारों शाखाओं में अन्तर किया और कुछ को उच्च तथा कुछ को नीच बताया । निम्न श्रेणी की शाखाओं को 'हीनयान' नाम दिया गया । इसमें वैभाषिक और सौत्रान्तिक इन दो शाखाओं की गणना है । इन दोनों शाखाओं के अनुयायी मध्यमवर्ग के व्यक्ति थे और वे केवल अपनी ही मुक्ति चाहते थे । उच्च श्रेणी की शाखाओं को महायान कहते हैं । इसमें योगाचार और माध्यमिक इन दो शाखाओं का समावेश होता है । इन दोनों शाखाओं के अनुयायी उच्चकोटि के व्यक्ति होते थे । वे अपनी मुक्ति स्वयं प्राप्त कर सकते थे । उन्हें किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं थी । वे साथ ही औरों की भी मुक्ति के लिए प्रयत्न करते थे । 'हीनयान' मार्ग के अनुयायियों ने साहित्यिक कार्यों के लिए 'पाली' भाषा को अपनाया चोर महायान मार्ग के अनुयायियों ने साहित्यिक कार्यों के लिए 'संस्कृत' भाषा को अपनाया ।
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बुद्ध ने अपने पीछे कोई ग्रन्थ नहीं छोड़ा है । इस दर्शन के प्रमुख लक्षणों का ज्ञान हमें उत्तरवर्ती लेखकों के ग्रन्थों से होता है । ऐसी परिस्थिति में ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता कि बुद्ध ने ये उपदेश दिये थे या नहीं । उदाहरण के लिए उत्तरवर्ती लेखक यह समझते हैं कि आत्मा की सत्ता का ज्ञान मनुष्य में प्रासक्ति, वासना तथा काम को प्रबुद्ध करता है । इसलिए ग्रात्मा और संसार की सत्ता का निषेध किया गया है । शून्यता परम सत्य है । उनके उपदेश और वक्तव्य पिटकों में संगृहीत हैं । ये पिटक पाली भाषा में हैं और ये बौद्ध धर्म के धर्म ग्रन्थों का प्रतिनिधित्व करते हैं । पिटक ग्रन्थ तीन हैं— सुत्त, विनय और अभिधम्म । सुत्तपिटक में बुद्ध के उपदेशों का संग्रह है । विनयपिटक में बौद्ध भिक्षुत्रों और भिक्षुणियों के लिए अनुशासन के नियम तथा दैनिक जीवन के लिए उपदेश हैं । अभिधम्मपिटक में दार्शनिक विवेचन हैं । इन पिटकों के लेखकों का नाम अज्ञात है । इनके संकलन का समय २४० ई० पू० से पूर्व माना जाता है । ये धर्मग्रन्थ संस्कृत भाषा में भी प्राप्य हैं,