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अध्याय ४ पाश्चात्य विद्वानों के विचारों की समीक्षा पाश्चात्य विद्वानों ने वेदों के अध्ययन के आधार पर जो निष्कर्ष निकाले हैं, उनका संक्षिप्त विवरण पिछले अध्याय में दिया गया है । उन्होंने वेदों के सम्बन्ध में जो कुछ विचार किया है, उसको बहुत स्पष्ट रूप से प्रकट कर दिया गया है । इस विषय में भारतीय विद्वानों की भी सम्मति का उल्लेख करना उचित प्रतीत होता है। पाश्चात्य विद्वानों ने जो निष्कर्ष निकाले हैं, उनका परीक्षण भी यहाँ पर करना उचित है ।
वैदिक साहित्य के विषय में हिन्दुओं की विचार-धारा पाश्चात्यों से भिन्न है । जो ग्रन्थ इष्ट-प्राप्ति और अनिष्ट-निवारण का अलौकिक उपाय बताता है, उसे वेद कहते है ।* दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि अच्छा क्या है और बुरा क्या है, यह वेद ही बताता है । ये उद्देश्य प्रत्यक्ष और अनुमान के द्वारा प्राप्त नहीं किए जा सकते थे । अतः शब्द प्रमाण वेद की आवश्यकता
प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुध्यते ।
एनं विदन्ति वेदेन तस्माद् वेदस्य वेदता ।। इस विषय में वेद स्वतः प्रमाण हैं । वे हिन्दुओं के धर्मग्रन्थ हैं।
वेदों के दो भाग हैं-कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड । कर्मकाण्ड में संहिता भाग, ब्राह्मण और आरण्यक आते हैं और ज्ञानकाण्ड में उपनिषद् । कर्मकाण्ड वैदिक यज्ञों के करने से विशेष सम्बन्ध रखता है । ये यज्ञ चार प्रकार के हैं--नित्य ( प्रतिदिन किए जाने वाले ), नैमित्तिक (विशेष निमित्त से * इष्टप्राप्त्यनिष्टपरिहारयोरलौकिकमुपायं यो ग्रन्थो वेदयति स वेदः ॥
तैत्तिरीय संहिताभाष्य की भूमिका में सायण का कथन ।