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३५५ का स्थान लेती है । अतएवं भारतवर्ष में इस प्रकार का कोई दर्शन नहीं है, जिसमें धर्म का समावेश सर्वथा न हो । दर्शन ज्ञान का द्वार उद्घाटित करता है और धर्म ज्ञान का मार्ग प्रदर्शित करता है । दार्शनिक विवेचनों के द्वारा जिस सत्य की स्थापना की जाती है, उसको प्राप्त करना जीवन का लक्ष्य है। भारतवर्ष में दो मुख्य कारणों से दर्शन और धर्म में पारस्परिक सम्बन्ध की स्थापना की गई है । ये दोनों कारण भारतीय श्रद्धा की विशेषता हैं। (१) संसार आध्यात्मिक है । इसमें जीव और प्रकृति का अस्तित्व रहता है । (२) विश्व में अनेकता में भी एकता है । इन कारणों से यह माना जाता है कि वास्तविक सत्य केवल एक ही है, किन्तु उस सत्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न धर्मों के अनुसार मार्ग पृथक् हैं । इन विभिन्न मार्गों का कारण यह है कि उस सत्य को विभिन्न दृष्टिकोण से देखा गया है । अतएव न केवल धर्मों में ही भेद है, अपितु वास्तविक सत्य के विषय में उनके दार्शनिक विचारों में भी मतभेद है । इस प्रकार विभिन्न विश्वासों में एकता को प्राप्ति होती है । प्राचीन भारत में इस सिद्धान्त को भली भाँति समझा गया था। इसका प्रभाव यह हुआ कि भारतीयों में धार्मिक सहिष्णुता की भावना उत्पन्न हुई और एक धर्म के अनुयायी, दूसरे सर्वथा विपरीत विचार वाले धर्म के अनुयायी के प्रति सहिष्णुता का भाव प्रदर्शित करते थे। इस धार्मिक सहिष्णुता की भावना के कारण ही विभिन्न दर्शनों और धर्मों का साथ ही साथ उद्भव और विकास हुआ ।
धर्मशास्त्रों में मनुष्य के कर्तव्यों का जो वर्णन किया गया है वह धर्म के सिद्धान्तों के आधार पर ही है । जो इन कर्तव्यों का पालन करना चाहते थे, उनके जीवन को व्यवस्थित और नियमित रखने के लिए वर्णों और अाश्रमों की स्थापना को गई । वर्ण-व्यवस्था एक महान् प्रयत्न था कि विभिन्न परम्पराओं, कर्मकाण्डों और रीतियों को मानने वाले विभिन्न जातीय तत्त्वों को समन्वित करके एक सामाजिक रूप दिया जाय और उनकी संस्कृति तथा धर्म को एक सूत्र में बाँधा जाय । आश्रमों ने यह व्यवस्था को कि मनुष्य