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संस्कृत साहित्य का इतिहास
वैयाकरणों का स्फोटवाद
वैयाकरणों ने व्याकरण को शास्त्र की कोटि से ऊपर उठाकर दर्शन की कोटि में लाने के लिए स्फोट - सिद्धान्त की स्थापना की । स्फोट - सिद्धान्त को संक्षेप में इस प्रकार रख सकते हैं--- शब्द के प्रत्येक वर्ण पृथक्-पृथक् और सम्मिलित दोनों रूपों में अर्थ का बोध कराने में असमर्थ हैं, क्योंकि ज्योंही एक वर्ण का उच्चारण किया जाता है, वह नष्ट हो जाता है और जिस समय तक अन्तिम वर्ण का उच्चारण किया जाता है, उस समय तक पहले का कोई वर्ण शेष नहीं रहता है । अतः वर्ण स्वयं किसी अर्थ का बोध कराने में अनमर्थ हैं । अतः वर्णों के अतिरिक्त अन्य किसी की अर्थबोधन के लिए सत्ता स्वीकार करनी चाहिए । अतः अर्थबोधन के लिए स्फोट की सत्ता स्वीकार की जाती है | स्फोट शब्द का अर्थ है कि जिसके द्वारा अर्थ प्रस्फुटित होता है । -- " स्फुटत्यर्थोऽस्मादिति स्फोट : " ( नागेशभट्ट का स्फोटवाद ) । श्रतः वर्णों के द्वारा जो अर्थ प्रकट नहीं होता है, उसको स्फोट प्रकट करता है । स्फोट एक है, अविनाशी है और सर्वव्यापक है । जब वर्णों का उच्चारण होता है, तब स्फोट को उच्चारण-सम्बन्धी चार अवस्थाएँ होती हैं-- वैखरी, पश्यन्ती और परा ।
मध्यमा,
पतंजलि ने स्फोट - सिद्धान्त का उल्लेख किया है । नागेश के मतानुसार स्फोट- सिद्धांत का प्रवर्तक स्फोटायन ऋषि था । भर्तृहरि ही सर्वप्रथम लेखक हैं जिसने स्फोट - सिद्धान्त का सर्वाङ्गपूर्ण विवेचन वाक्यपदीय में किया है । उच्चरित शब्दों के विनश्वर रूप में और शब्दब्रह्म के मायारूप में समता है । देखिए
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अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरम् । विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः ॥
अतएव उसको ध्वनि कहते हैं । जिसके द्वारा अर्थ का वह शब्द का स्फोट रूप है । शब्दों के उच्चारण के साथ
वाक्यपदीय १-१
बोध होता है,
चैतन्य का प्रका