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शास्त्रीय ग्रन्थ
बड़ी और छोटी टीकाएँ हैं । उसने महाभाष्य पर की गई कैयट की टीका महाभाष्यप्रदीप पर महाभाष्यप्रदीपोद्योत अर्थात् उद्योत नामक टीका लिखी है | उसने संस्कृत व्याकरण के दार्शनिक दृष्टिकोण को लक्ष्य में रखते हुए तीन ग्रन्थ लिखे हैं -- मंजूषा, लघुमंजूषा, परमलघुमंजूषा । ये तीनों एक ही विशाल ग्रन्थ मंजूषा के संक्षिप्त और प्रतिसंक्षिप्त रूप हैं । उसने अपने ग्रन्थ स्फोटवाद में वैयाकरणों के स्फोटवाद का विवेचन किया है । उसने परिभाषेन्दुशेखर में वैयाकरणों द्वारा स्वीकृत परिभाषाओं का विवेचन किया है । नागेश के शिष्य पायगुण्ड वैद्यनाथ ( लगभग १७५० ई० ) ने व्याकरण विषय पर अनेक ग्रन्थ लिखे हैं । इसमें से अधिकांश अपने पूर्ववर्ती लेखकों के ग्रन्थों पर टीकाएँ हैं । सिद्धान्तकौमुदी का अध्ययन निम्नलिखित दो टीकाओं से बहुत सरल हो गया -- - ( १ ) जिनेन्द्रसरस्वती ( लगभग १७५० ई ० ) की तत्त्वबोधिनी टीका । यह टीका बहुत विद्वत्तापूर्ण तथा आलोचनात्मक है । (२) वासुदेव दीक्षित ( लगभग १७५० ई० ) की बालमनोरमा टीका । यह टीका बहुत सरल है और इसमें विस्तार के साथ सब बातें स्पष्ट की गई हैं ।
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११२० ई० में क्षीरस्वामी ने निपाताव्ययोपसर्ग नामक ग्रन्थ की रचना की । इसमें उन्होंने ग्रव्ययी शब्दों की यथाक्रम विस्तृत व्याख्या की है । विजयनगर के माधव ( लगभग १३५० ई० ) के भाई सायण ने धातुवृत्ति नामक ग्रन्थ लिखा है । उसने अपने भाई के नाम से इस ग्रन्थ का नाम माधवीयधातुवृत्ति रक्खा है । इसमें सभी धातुत्रों के सारे लकारों में रूप दिये हैं तथा धातु से बनने वाले कृदन्त शब्दों को भी दिया है ।
निम्नलिखित ग्रन्थों की सहायता से व्याकरण - शास्त्र का अध्ययन बहुत अधिक विकसित हुआ---पाणिनि, वररुचि, शबरस्वामी और हर्षवर्धन आदि के लिंगानुशासन, शब्दों की रचना को बताने वाले उणादिसूत्र, स्वरों के नियमबोधक फिट्सूत्र तथा गणपाठ आदि । इनमें से बहुतों का लेखक पाणिनि माना जाता है । कुछ विद्वान् फिट्सूत्रों का लेखक शान्तनवाचार्य को मानते हैं और कुछ शान्तनु को ।