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________________ २६२ संस्कृत साहित्य का इतिहास और रस में नहीं । भट्टतौत १०म शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुअा था। उसने काव्यकौतुक नामक ग्रन्थ लिखा था। वह नष्ट हो गया है । उसका मत था कि रस का अनुभव नायक, लेखक और श्रोता समानरूप से करते हैं । वह शान्त रस को सब रसों में मुख्य मानता था। महिमभट्ट (लगभग १०५० ई०) ने शंकुक का अनुसरण किया है और ध्वनिवाद का खण्डन किया है । उसका मत था कि रस का अनुभव अनमान के द्वारा होता है । उसने अभिनवगुप्त और कुन्तक के मतों का खण्डन किया है। उसने तोन अध्यायों में व्यक्तिविवेक नामक ग्रन्थ लिखा है। इसो में उसने अपने विचार व्यक्त किये हैं । इस ग्रन्थ से ज्ञात होता है कि वह उच्चकोटि का विद्वान् और आलोचक था। उसकी आलोचना में पूर्ण सूक्ष्मता और गम्भीरता है। उसका दूसरा ग्रन्थ काव्यशास्त्र पर तत्त्वोक्तिकोश था । वह नष्ट हो गया है। इस काल में कुछ ऐसे भी विद्वान् हुए हैं, जिन्होंने इस विवाद में भाग नहीं लिया, किन्तु काव्यशास्त्र पर कार्य किया है । उनके विचारों पर रमवाद और ध्वनिवाद का प्रभाव अवश्य पड़ता है । रुद्रट (८००-८५० ई०) मवसे प्रथम विद्वान् है, जिसने अलंकारों को वैज्ञानिक पद्धति से विभाजित करने का प्रयत्न किया है। उसने १६ अध्यायों में काव्यालंकार ग्रन्थ लिखा है। उसने शब्दालंकारों, अथालंकारों, वक्रोक्ति और यमक का विस्तत विवेचन किया है। वामन और दण्डी के द्वारा स्वीकृत तीनों रोतियों का भी वर्णन किया है और उनके साथ ही चौथो लाटो रोति का भो उल्लेख किया है । उसने रससिद्धान्त का भी विवेचन किया है । लेखक ने छः भाषामों का उल्लेख किया है-प्राकृत, संस्कृत, मागधी, पैशाची, शौरसेनी और अपभ्रंश । उसने 'शान्त' को नवाँ तथा 'प्रेय' को दसवाँ रस माना है। उसका दूसरा नाम शतानन्द है। नाटककार राजशेखर (६०० ई.) ने काव्यमीमांशा १८ अध्यायों में लिखी है। उसने काव्यशास्त्रीय विषयों का विश्लेषण नहीं किया है । उसको पुस्तक कवियों के लिए एक संग्रह-पुस्तिका है। इसमें ज्ञातव्य सभी बातों का समावेश है । इसमें कवि और भाषा आदि के विषय में आवश्यक बातों का उल्लेख है।
SR No.032058
Book TitleSanskrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV Vardacharya
PublisherRamnarayanlal Beniprasad
Publication Year1962
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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