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________________ कालिदास के परवर्ती नाटककार २६९ नाटक, कृष्णमिश्र का वीर-विजय, शंकर का शारदातिलक, रामकृष्ण की गोपालकेलिक्रीड़ा और माधव का सुभद्राहरण । रूपकात्मक नाटक संस्कृत साहित्य के प्रारम्भिक काल से कवियों और विद्वानों में यह प्रवृत्ति रही कि वे निर्जीव वस्तुओं और मानवीय गुणों को मूर्त रूप देकर वर्णन करें। दर्शनों की उत्पत्ति और विकास ने तथा नैतिक शिक्षाओं की आवश्यकता ने इस प्रकार के मूर्तीकरण को बहुत सहायता और बल प्रदान किया है । इस प्रकार की मुर्तीकृत वस्तुओं आदि को नाटकों में भी स्थान प्राप्त होने लगा और वे व्यक्ति के स्थान पर आने लगे। देखिए न तच्छास्त्रं न सा विद्या न तच्छिल्पं न ताः कलाः । ___ नासौ योगो न तद्शानं नाटके यन्न दृश्यते ।। जिन नाटकों में ऐसे मूर्तीकृत पात्रों को स्थान दिया गया है, उनमें से प्रमुख पात्र ये हैं-विवेक, मोह, काम, दम्भ, अहंकार, श्रद्धा । इस पद्धति पर लिखा हुआ सबसे प्राचीन नाटक अश्वघोष का है जो कि अपूर्ण रूप में प्राप्त हुआ । इसका नाम ठीक ज्ञात नहीं है । कृष्णमित्र ने ६ अंकों में एक रूपकात्मक नाटक प्रबोधचन्द्रोदय, कीर्तिवर्मा के आश्रित एक व्यक्ति गोपाल के लिए लिखा है । कीर्तिवर्मा का एक शिलालेख १०६८ ई० का प्राप्त हुआ है। इसमें विवेक और महामोह के युद्ध का वर्णन किया गया है । इसमें प्रबोध ( ज्ञान ) रूपी चन्द्र के उदय का वर्णन अन्त में किया गया है। इस ग्रन्थ की रचना में लेखक का उद्देश्य अद्वैत मत का महत्त्व सिद्ध करना है और जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए विष्णु की भक्ति पर बल देना है । इस नाटक में जैनों, बौद्धों और कापालिकों के जो संवाद हैं वे बहुत रोचक हैं। एक जैन लेखक यज्ञपाल ने १२२६-१२३२ ई० के बीच में ५ अङ्कों में मोहपराजय नाटक लिखा है । इसमें अनहिलवाद के कुमारपाल के द्वारा जैनमत
SR No.032058
Book TitleSanskrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV Vardacharya
PublisherRamnarayanlal Beniprasad
Publication Year1962
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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