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________________ संस्कृत नाटक, उनकी उत्पत्ति, उनकी विशेषताएं और उनके भेद २०६ अनुभूति पृथक्-पृथक् होती है । यह उसके हृदय में उठने वाले अपने भावों पर निर्भर है । इस प्रकार के भावों को जागृत करने में अभिनय के दो अङ्ग सहायक होते हैं--पहला है नृत्य जिसमें भाव की प्रमुखता रहती है और दूसरा है नृत्त जिसका आश्रय ताल और लय है। किन्तु नाटक का प्रमुख आश्रय रस होता है । देखिए :-- धीरोदात्ताद्यवस्थानुकृतिर्नाट्यं रसाश्रयम् । भावाश्रयं तु नृत्यं स्यान्नृत्तं ताललयाश्रयम् ।। प्रतापरुद्रीय-नाटकप्रकरण १-२ संस्कृत नाटकों में और बातों की अपेक्षा रस-परिपाक को अधिक महत्त्व दिया गया है । शृङ्गार और वीर रस मुख्य रस होते हैं, अन्य रस उसके सहायक होते हैं । जो नाटककार रस-परिपाक को लक्ष्य में रखते हैं, वे उन्हीं बातों का नाटक में संग्रह करते हैं जो रस की पुष्टि में सहायक हों। जो बातें उस रस की पुष्टि में बाधक होती हैं, उनको छोड़ देते हैं या उन्हें गौण स्थान देते हैं। रस की पुष्टि के लिए गद्य की अपेक्षा पद्य अधिक उपयुक्त होता है । अतएव संस्कृत नाटकों में गेय छन्दों में श्लोक पर्याप्त संख्या में हैं । शकुन्तला नाटक में १६२ श्लोक हैं, विक्रमोर्वशीय में १३३, उत्तररामचरित में २५५, मृच्छकटिक में ३८०, वेणीसंहार में २०८ श्लोक हैं । ये श्लोक अधिकांश में भावों या दृश्यों का वर्णन करते हैं। नाटककार रसों के परिपाक के लिए प्रकृति का वर्णन करते हैं। संवादों के लिए गद्य का प्रयोग उचित रूप से किया जा सकता था, परन्तु गद्य को उचित स्थान नहीं प्राप्त हुअा है । कथानक के विकास लिए संवाद सबसे अधिक उपयुक्त होते हैं । संस्कृत नाटकों में कथानक की प्रगति को गौण स्थान दिया गया है, अतः गद्य अंश बहुत कम है । तथापि कालिदास, शूद्रक, भट्टनारायण, विशाखदत्त आदि के नाटकों में गद्य अंश का प्रयोग उचित मात्रा में हुआ है । रस को मुख्यता दी गयी है, अतएव कथानक और पात्रों को गौण स्थान दिया गया है, क्योंकि यदि कथानक और पात्रों के चरित्र-चित्रण पर विशेष ध्यान दिया जाता तो 10 सा० इ०--१४
SR No.032058
Book TitleSanskrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV Vardacharya
PublisherRamnarayanlal Beniprasad
Publication Year1962
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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