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________________ भूमिका उसका कथन है कि संस्कृता प्राकृता चेति भाषे प्राधान्यमर्हतः, तत्रापि संस्कृता तावद दुर्विदग्धहृदि स्थिता ॥ बालानामपि सद्बोधकारिणी कर्णपेशला, तथापि प्राकृता भाषा न तेषामपि भासते ॥ उपमितिभावप्रपंचकथा १-५१, ५२, कश्मीरी कवि बिरहण (११ वीं शताब्दी ई०) का कथन है कि कश्मीरी स्त्रियाँ संस्कृत, प्राकृत और कश्मीर की भाषा को ठीक समझती थीं। संस्कृत वैयाकरणों के ग्रन्थों ने इस भाषा के दुरुपयोग को अवश्य रोका, परन्तु इसके द्वारा भाषा को निश्चल बना दिया। इसका परिणाम यह हमा कि पाणिनि के समय में संस्कृत और प्राकृत में जो अन्तर था, वह दिन प्रतिदिन बढ़ता गया । कुछ काल पश्चात् जब व्याकरण के नियमों से बद्ध कवियों ने इसको कृतिम रूप देना प्रारम्भ किया और अप्रचलित प्रयोगों को स्थान देना प्रारम्भ किया, तबसे यह अन्तर और बढ़ गया। ज्यों-ज्यों प्राकृत बढ़ती गई, बोलचाल के रूप में संस्कृत भाषा का प्रयोग कम होता गया और धीरेधीरे समाज पर उसका प्रभाव कम हो गया। साहित्यिकों ने संस्कृत भाषा की इस अवनति की ओर ध्यान दिया और प्रयत्न किया कि यह पुनः उसी स्थिति को प्राप्त हो। हितोपदेश और पंचतंत्र इसी प्रकार के प्रयत्नों के परिणाम हैं। धार्मिक कृत्यों के लिए छोटे 'प्रयोग' नामक ग्रन्थ भी इसी उद्देश्य से लिखे गए थे। इन प्रयत्नों के द्वारा यद्यपि पूर्ण सफलता नहीं मिली, तथापि इनके द्वारा अवनति की गति कम अवश्य हो गई। ___ अाजकल संस्कृत को मातृभाषा कहा जाता है। इस विषय में यह स्मरण रखना चाहिए कि यह संपूर्ण भारतवर्ष या किसी एक प्रदेश की दैनिक बोलचाल की भाषा नहीं थी और इस अर्थ में कभी भी जीवित भाषा नहीं थी, अपितु यह उच्च श्रेणी के व्यक्तियों की ही बोलचाच की भाषा थी। किसी भी १. विक्रमांकदेवचरित १८-६
SR No.032058
Book TitleSanskrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV Vardacharya
PublisherRamnarayanlal Beniprasad
Publication Year1962
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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