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कालिदास के बाद के कवि
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काव्य के लिए निर्धारित नियमों के पालन के लिए कतिपय एसे वर्णनों को स्थान दिया गया, जो वहाँ पर वस्तुतः आवश्यक और उपयुक्त नहीं हैं । रत्नाकर के हरविजय, मंख के श्रीकण्ठचरित और शिवस्वामी के कप्पयाभ्युदय आदि में यह प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है । कवियों ने शब्दालंकारों के प्रयोग में ही अपनी मौलिकता दिखानी प्रारम्भ को । इस विषय में भारवि, माघ, कुमारदास, वासुदेव, शिवस्वामी और वेंकटाध्वरी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । कुछ काव्यों में वैयाकरणों का प्रभाव विशेषरूप से दृष्टिगोचर होता है । अश्वघोष के बुद्धचरित और भारवि के किरातार्जुनीय में यह प्रवृत्ति विशेषतया दिखाई देती है । भट्टि, भीम और हलायुध ने अपने काव्य केवल इसलिए बनाए हैं कि उनमें व्याकरण के नियमों के उदाहरण प्रस्तुत किए जायें । ज्यों-ज्यों कविता बाह्यरूपात्मक अधिक होती गई, श्रीहर्ष जैसे कुछ कवियों ने अपने काव्य में कवित्व के अतिरिक्त अन्य विषयों का पाण्डित्य प्रदर्शित करना प्रारम्भ कर दिया । एक नई प्रवृत्ति प्रारम्भ हुई कि श्लेष अलंकार का आश्रय लेकर एक से अधिक भावों को एक साथ प्रकाशित किया जाय । इस विषय में धनंजय चौर कविराज के राघवपाण्डवीय काव्य आदि, जो कि द्विसन्धान पद्धति पर लिखे गए हैं, विशेषतथा उल्लेखनीय हैं । डा० ए० बी० कीथ ने ठीक ही लिखा है कि "श्लेष अलंकार का भाषा पर बहुत घातक प्रभाव पड़ता है । योग्यतम कवि के लिए असंभव है कि वह श्लेष के द्वारा दो अर्थ एक साथ प्रकट करे और अर्थ, रचना तथा अन्वय में खेंच न करे । इस प्रयत्न का प्रभाव यह होता है कि उस समय के वर्तमान कोष -ग्रन्थों को सूक्ष्मता के साथ देखा जाता है और ऐसे शब्द ढूँढ़ कर निकाले जाते हैं जो अनेक अर्थों का बोध करा सकें । परिणामस्वरूप कवित्व - साधना के स्थान पर बौद्धिक परिश्रम होने लगता है और विचारों तथा भावों को सर्वथा नष्ट किया जाता है ।"" इस काल में साम्प्रदायिक भावों का बहुत प्राबल्य रहा है । बौद्धों और जैनों ने काव्य - साहित्य को बहुत दे दी है । इस दृष्टि से अश्वघोष और हेमचन्द्र उच्चकोटि के
१. A. B. Keith; History of Sanskrit Literature. पृष्ट १२७