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संस्कृत साहित्य का इतिहास
उल्टे दोनों रूप में पढ़ने पर एक ही होते हैं और अर्थ भी दोनों रूप में एक ही होता है । कुछ श्लोकों में केवल दो ही व्यंजनों का प्रयोग किया गया है । एक श्लोक ऐसा भी है, जिसमें केवल एक ही व्यंजन है । ऐसा कहा जाता है कि 'बाद के कवियों में भारवि ही कई प्रकार से रीतिवाद का जन्मदाता है ।' यदि भारवि को कुमारदास से पूर्ववर्ती कवि मानें, तभी उपर्युक्त उक्ति कुछ अंश तक ठीक मानी जा सकती है । भारवि राजनीति सम्बन्धी विवेचन में मनु कानुयायी है । प्रत्येक सर्ग के अन्तिम श्लोक में 'लक्ष्मी' शब्द का प्रयोग है । ६३४ ई० के ऐहोल के शिलालेख में भारवि का नामोल्लेख है । अतः उसका समय ६०० ई० से पूर्व मानना चाहिए ।'
भकिवि ने २२ सर्गों में रावणवध नामक महाकाव्य बनाया है । इसमें राम की कथा का वर्णन है । उसका कथन है कि श्रीधरसेन के राज्यकाल में वलभी में उसने यह ग्रंथ बनाया है ।' वलभी में श्रीधरसेन नाम के चार राजा हुए हैं । इनमें से अन्तिम ने ६४४ ई० के लगभग राज्य किया है । अन्तिम राजा विद्वानों का आश्रयदाता था । अतः ज्ञात होता है कि कवि भट्टि ने ६४४ ई० के लगभग अपना महाकाव्य बनाया होगा । इस विषय में यह उल्लेख करना उचित है कि वलभी वंश के धरसेन चतुर्थ के एक शिलालेख पर ३२६ संवत् लिखा हुआ है । ३१८ ई० में वलभी संवत् स्थापित हुआ था । यह संवत् उसी का उल्लेख प्रतीत होता है । 'भट्टि' शब्द संस्कृत के 'भर्तृ' शब्द का प्राकृत रूप है । इस आधार पर कुछ विद्वानों ने यह विचार व्यक्त किया है कि वैयाकरण भर्तृहरि और कवि भट्टि एक ही व्यक्ति हैं । टीकाकारों ने दोनों व्यक्तियों की एकता को स्वीकार किया है। इस एकता का आधार यह है कि दोनों ही व्याकरण के विद्वान् थे । भर्तृहरि ने व्याकरण दर्शन पर वाक्य - पदीय नामक ग्रन्थ लिखा है और भट्टि ने व्याकरण के नियमों को स्पष्ट करने
१. देखो अध्याय १७ में दण्डी के वर्णन में ।
२. रावणवध २२--३५ ।
३. The collected works of Bhandarkar भाग ३ पृष्ठ २२८ ।