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छहटाला
अर्थ - ग्रन्थकार भव्य जीवोंको संबोधन करते हुए कहते हैं - कि हे भव्य जीवो ! यदि तुम अपना कल्याण चाहते हो, तो उस दुःखहारी और सुखकारी शिक्षाको मन स्थिर करके सुनो। इस जीवने अनादि कालसे मोह-रूपी महामदको पिया है. जिसके कारण यह अपने आपको भूल रहा है और मोह-मदिरासे उन्मत्त होकर व्यर्थ इधर-उधर संसारमें परिभ्रमण कर रहा है ॥ ३ ॥
विशेषार्थ - यद्यपि जीव स्वभावसे अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुखका भंडार है, किन्तु अनादि कालसे ही यह राग-द्वेष रूप मोह-मदिरा पान करनेसे अपने स्वरूपको भूला हुआ है, मैं कौन हूं, मेरा क्या स्वरूप है, मुझे क्या प्राप्त करना है और कौनसा मार्ग मेरे लिए हितकर एवं सुखदायक है, इसका इसे भान तक भी नहीं है । यही कारण है कि यह इस चतुर्गतिरूप संसारमें चक्कर लगा रहा है और निरन्तर संक्लेशका अनुभव करता हुआ दुःख उठा रहा है । उसे संबोधन करके ग्रन्थकार या श्री परम गुरुदेव कहते हैं कि हे भव्य ! यदि तू अपना कल्याण चाहता है, सुख पानेकी मनमें अभिलाषा है और दुःखसे बचना चाहता है, तो अपना मन स्थिर करके उस शिक्षाको सुन, जिसे परम गुरु तेरे ऊपर अनुकम्पा धारण करके तुझे सुना रहे हैं ।
ग्रन्थकार अपने ग्रन्थकी प्रामाणिकताका उल्लेख करते हुए सर्वप्रथम निगोदके दुःखका वर्णन करते हैं :