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प्रथम ढाल
अर्थ – तीनों लोकों में जितने अनन्त जीव हैं, वे सब सुख चाहते हैं और दुःखसे डरते हैं । इसलिए श्री परम गुरुदेव करुणा-भाव धारण करके दुःखको हरनेवाली और सुखको करनेवाली उत्तम शिक्षाको देते हैं।
विशेषार्थ – संसारका प्रत्येक प्राणी सुखको चाहता है, और दुखसे दूर भागता है, इसका कारण यह है कि यथार्थ में सुख आत्माका स्वभाव है और प्रतिक्षण प्रत्येक प्राणीको उसका अंतरंग अत्यन्त सूक्ष्म रूपसे आभास होता रहता है । किन्तु जब उसका उपयोग बाहरी पदार्थोंकी ओर होता है और उन्हें वह अपने अनुकूल नहीं पाता है, प्रत्युत विपरीत परिणमन करते हुए देखता है, तथा प्रयत्न करने पर भी अनुकूल नहीं कर पाता है, तब वह उन्हें दु:खदायक मानकर उनसे भयभीत रहने लगता है और अपने भीतर असामर्थ्यका अनुभव करने के साथ-साथ अपनेको दुखी मानने लगता है । इसी मिथ्या-भ्रान्तिको दूर करनेके लिए प्राणिमात्र के कारण परम हितैषी परमगुरुदेव अनुकम्पा - भावसे प्रेरित होकर परम शान्तिको पानेके लिए सन्मार्ग दिखानेवाली उत्तम शिक्षाको सदुपदेशकोदेते हैं ।
अब ग्रन्थकार गुरुकी शिक्षाको सुननेका आदेश देते हुए जीवको संसार-परिभ्रमणका कारण बतलाते हैं:
ताहि सुनो भवि मन थिर मान, जो चाहो अपनो कल्यान । मोह महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि ॥ ३ ॥