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दूसरी ढाल
(पद्धरी छन्द १५ मात्रा) अब ग्रन्थकार दूसरी ढालका प्रारंभ करते हुए सबसे पहले चतुर्गतिमें परिभ्रमणका कारण बतलाते हैं:ऐसे मिथ्या दृग ज्ञान वर्ण, वश भ्रमत भरत दुख जन्म मर्ण । ताते इनको तजिये सुजान, सुन तिन सक्षप कहूं वखान ॥१॥ - अर्थ-यह जीव मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रके वश होकर जन्म-मरणके दुःख सहन करता हुआ संसारमें परिभ्रमण करता रहता है, इसलिए हे भव्यजीवो ! इन तीनोंको जानकर छोड़ देना चाहिए। मैं संक्षेप में उनके स्वरूपका ब्याख्यान करता हूं, सो उसे सुनो।
विशेषार्थ-जीवादि सात तत्वोंके स्वरूपका यथार्थ श्रद्धान न करना, सच्चे देव, शास्त्र, गुरुके स्वरूपमें वास्तविक प्रतीत न करना और अनेकान्तवाद पर विश्वास न लाना, सो मिथ्यादर्शन कहलाता है । सातों तत्त्वोंका अयथार्थ जानना, एकान्तवादी शास्त्रोंका पठन-पाठन करना, अज्ञानभाव रखना या विपरीत जानना, सो मिथ्याज्ञान है। इन्द्रियों को वशमें नहीं करना, विषय-कषायरूप प्रकृति रखना, मन-वचन और कायको अनियन्त्रित छोड़ना, जटाजूट धारण करना, पंचाग्नि तपना,