________________
१६८
छहढाला
तपश्चरणको करते हुए आत्म-निरत होना चाहिए । ऐसा विचार करना सो निर्जरा भावना है।
अब लोक भावनाका स्वरूप कहते हैं:
किन हू न करौ न धरै को, षट्द्रव्यमयी न हरे को । सो लोक मांहि विन समता, दुख सहे जीव नित भ्रमता १२
अर्थ - छह द्रव्यों से भरे हुए इस लोकको न किसीने बनाया है, न कोई इसे धारण किए हुए है और न कोई इसका नाश ही कर सकता है । ऐसे इस लोकके भीतर समता भावके बिना यह जीव निरन्तर भ्रमण करता हुआ दुःख सहा करता है ।
विशेषार्थ - अन्य मतावलम्बी मानते हैं कि ब्रह्माने इस लोकको बनाया है, विष्णु इसे धारण किए हुए हैं और महेश इसका संहार करते हैं। छह ढालाकार इन सबका खण्डन करते हुए कहते हैं कि न तो किसीने इस लोक को बनाया है, न कोई धारण किए हुए है और न कोई इसका नाश ही कर सकता है । किन्तु यह लोक अनंतानंत आकाशके ठीक मध्य भागमें छह द्रव्यों से ठसाठस भरा हुआ पुरुषाकार संस्थित है और इसे चारों ओरसे घनोदधिवात, घनवात और तनुवात ये तीन प्रकारके वातवलय घेरे हुए हैं जिनके आधार पर यह लोक स्थिर है । इस लोकका
* सव्वायासमणतं तस्स य बहुमज्झिमठियो लोश्रो ।
सो के वि व को, ण य धरियो हरिहरादीहिं ॥ ११५ ॥
स्वामिका ०