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चौथी ढाल भव्योंके लिए ग्रन्थकार संबोधन करते हुए कहते हैं किः
पुण्य पाप-फल मांहि हरष विलखौ मनि भाई, यह पुद्गल पर्याय उपजि बिनसै फिर थाई । लाख बात की बात यही निश्चय उर लाओ, तोरि सकल जगदंद फंद निज प्रातमध्याभो ॥८॥ अर्थ हे भाई ! तुम पुण्यका फल मिलने पर हर्ष मत करो और पापका फल मिलनेपर विषाद मत करो, क्योंकि यह सब कर्मरूप पुद्गलकी पर्यायें हैं जो सदा उपजती और विनशतीं रहती हैं । संसारका यही स्वभाव है कि सदा काल कोई न कोई
आपत्ति बनी ही रहती है। इसलिए इन झंझटों के चक्करमें न फंसो, उनमें आसक्त होकर आत्म-कल्याण से विमुख न रहो।। सच्ची और लाख बातकी बात यही है और इसे ही निश्चयसे हृदयमें लाओ कि संसारके समस्त दंद-फंदों को तोड़कर नित्य अपनी आत्माका ध्यान करो, यदि सांसारिक झंझटोंके जंजालमें उलझे रहे, जोकि कभी सुलझने वाले नहीं हैं, तो तुम त्रिकाल में भी अपना कल्याण नहीं कर सकोगे ।
इस प्रकार सम्यग्ज्ञान का वर्णन किया ।
अब आगे सम्यक्चारित्रके धारण करनेका उपदेश देते हुए उसके भेदकर उनके स्वरूपका वणन करते हैं:
सम्यग्ज्ञानी होय बहुरि दिढ़चारित लीजे, एक देश अरु सकलदेश तसु भेद कहीजे ।