________________
चौथी ढाल
२०६
नष्ट हो जाते हैं, केवल - एकमात्र यही ज्ञान रह जाता है, इसी - लिए इसको 'केवलज्ञान' कहते हैं। अरिहन्त और सिद्ध भगवान के यह ज्ञान होता है अन्यके नहीं ।
छहढालाकार कहते हैं कि ज्ञानके समान अन्य कोई पदार्थ सुखका कारण नहीं है । यथार्थ में सुखका सम्बन्ध या उसका आधार ज्ञान ही है । जिसको जितना यथार्थ ज्ञान होता जाता है, उसे उतने ही परिमाण में सुख भी बढ़ता जाता है । श्री त्रिलोकसार में कहा है कि :- एक भी शास्त्रको भली-भांतिसे जाननेवाला मनुष्य अत्यन्त सन्तोष या परम आनन्दका अनुभव करता है तो जो संसार के समस्त पदार्थोंको प्रत्यक्ष जान और देख रहा है, वह कितना अधिक आनन्द और सुखका अनुभव नहीं करेगा। कहनेका सारांश यह है कि जिसके अनंतज्ञान होता है उसीके अनन्त सुख भी होता है ।
अब ज्ञानकी महत्ता बतलाते हुए आत्मज्ञानकी सर्वश्रेष्ठता सिद्ध करते हैं:
कोटि जन्म तप तर्फे ज्ञान बिन कर्म भरें जे, ज्ञानीके छिन माँहि त्रिगुप्तितें सहज टरें ते* ।
" एयं सत्थं सव्वं सत्यं वा सम्ममेत्थ जाणता । तिब्वं तुस्संति गरा किरण समत्थत्थ तच्चरहू || ५५६ || त्रिलोकसार ।
* जं
गाणी कम्मं खवेदि भवसदसहस्सकोडीहिं । तं पायीं तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमित्तं ॥
कुन्दकुन्दाचार्य |