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________________ १०८ छहढाला गई वस्तुओं का परिज्ञान, गढ़े हुए और नष्ट हुए धन आदिका बोध होता है । मन:पर्ययज्ञान - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी मर्यादा लिए हुए दूसरोंके मनकी बातोंको जानने वाले ज्ञानको मन:पर्यय ज्ञान कहते हैं। इसके दो भेद हैं- जुमति मन:पर्यय ज्ञान और विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान । जो दूसरेके मनकी सीधी या सरलता से सोची गई बातको जाने, वह ऋजुमतिमनः पर्यय ज्ञान है और जो कुटिलता पूर्वक चितवन की गई, आधी चितवन की गई या नहीं चिन्तवन की गई मनकी बातको जाने उसे विपुलमति मन:पर्ययज्ञान कहते हैं । ऋजुमतिवाला अपने या दूसरोंके सात-आठ भवों तकके मनकी बातको जान सकता है, किन्तु विपुलमतिवाला असंख्यात भवों तककी सोची, अधविचारी आदि मनकी बातोंको जान सकता है । ये दोनों ज्ञान महान संयमी साधुके ही होते हैं इनमें विपुलमतिज्ञान तद्भव मोक्षगामी महान संयमी पुरुषके होता है । केवल ज्ञान - जो त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्योंको और उनके अनन्त गुणों और अनन्त पर्यायों को एक साथ हस्तामलकवत् जाने उसे केवल ज्ञान कहते हैं । चार घातिया कर्मों के नाश होने पर ही यह ज्ञान प्रगट होता है अतएव यह क्षायिक ज्ञान कहलाता है, इसके द्वारा पदार्थों को जाननेके लिए इन्द्रियों की आवश्यकता नहीं होती, अतएव इसे अतीन्द्रिय ज्ञान कहते हैं । इसके प्रगट होने पर मतिज्ञान आदि चारों क्षायोपशमिकज्ञान
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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